“हिन्दुस्तानी कुतिया,रंडी,बंद करो यह ड्रामा” यह महिला पत्रकार शहाना बट्ट
के लिए था जो इरान के टीवी चैनल प्रेस टीवी के लिए काश्मीर में बाढ़ की पर
रिपोर्टिंग कर रही थी. जब लोगों ने इनको कैमरे के साथ देखा तो लोग आक्रोशित हो
गए.ऐसा इसलिए हुआ क्योकि वे राष्ट्रीय मीडिया द्वारा दिखाई जा रही झूठी रिपोर्टिंग
से नाराज थे.भारतीय मीडिया ने बार-बार यह सवाल उठाया की अभी अलगाववादी कश्मीरियों
की सहायता के लिए क्यों नहीं आगे आये?जबकि यह सवाल तब क्यों नहीं उठाया गया कि
नक्सलवादी बिहारियों को बाढ़ से बचाने के लिए क्यों नहीं आगे आया?यह सवाल मीडिया ने
तब क्यों नहीं उल्फा से पूछा जब आसाम में बाढ़ आई थी?यह सिर्फ काश्मीर के लिए ही
क्यों पूछा जा रहा था? यह सवाल सिर्फ काश्मीर के मुद्दे पर ही क्यों पूछा गया?क्या
इसी कारण तो नहीं इस महिला पत्रकार को इतनी गन्दी गाली सुनना पडा.यह सच भी था की
इनका मानना था कि पत्रकार झूठे है और मीडिया हालात का गलत चित्रण कर रही है.सेना
पर पत्थर बाजी की खबरों को ज्यादा तबज्जों दे रही है,जबकि यह आक्रोश इन परिस्तिथि
में आम भी हो सकता है.क्या सिर्फ यह काश्मीर में हो रहा है इसलिए इनकी राष्ट्रीयता
पर सवाल खड़े करती है वही मीडिया जो चीन के राष्ट्रपति के भारत आने के बाद काश्मीर
में बाढ़ के मुद्दे को भूल जाती है.यह गाली एक बानगी थी उस आक्रोश कि जिसमें
मुख्यधारा की मीडिया कश्मीर की बाढ़ और बचाव के सिर्फ कुछ पहलू को ही दिखा रही
थी.काश्मीर की बाढ़ की वास्तविकताओं का आइसवर्ग ही दिखा जबकि कई हिस्सों की तबाही
के मंजर को न दिखाया गया न बचाया गया.यह गाली एक आक्रोश से लिपटा एक अहसास है.यह इस
अवधारणा की ही पुष्टि करता है कि भारत सरकार के लिए काश्मीर के लोग दोयम दर्जे के
निवासी हैं। सबसे पहले पर्यटकों को बाहर निकाला गया।यंहा तक कि यंहा कार्यरत
भारतीय मजदूरों का बचाव प्राथमिकताओं में थी.वह देश जो कश्मीर को अपना अभिन्न
हिस्सा मानता है, एक बार फिर कश्मीरियो का दिल
जीतने में हार गया.यह विशेष शब्द "रंडी” जिसे किसी भी सभ्य समाज में फूहड़
माना जाता है, वह एक पत्रकार के रूप में सिर्फ शाहाना के लिए
नहीं था बल्कि सारे मीडिया समाज के लिए था.
प्रश्न यह है की जो मीडिया काश्मीर की बाढ़ की रिपोर्टिंग में अपनी
राष्ट्रीयता के चरम उन्माद में आ जाता है वो उन्माद,जोश और जूनून तब कंहा गायब हो
जाता है जब देश के पूर्वोत्तर हिस्से में बाढ़ आती है.यह सवाल तब क्यों नहीं उठाये
जाते कि इन राज्यों के अलगाववादी इस पीड़ा में कितने साथ खड़े हैं?जितना आपने
काश्मीर के मुद्दे को ताना उसका दस प्रतिशत भी पूर्वोत्तर के बाढ़ पर न दिखाया गया
और न ही बताया गया.मीडिया का काम अगर सच दिखाना ही है तो फिर यह सच क्यों नहीं
दिखाया गया. मीडिया अमेरिका में मोदीसन में मोदी के चरम राष्ट्रवादी उन्माद को तो
दिखाता है परन्तु उसी के पास प्रधानमंत्री मोदी से सवाल पूछते लोगों को क्यों नहीं
दिखाया गया,जो 1984 और 2002 के नरसंहार के दोषियों को सजा दिलवाने की मांग कर रहे थे. “स्पाइरल ऑफ़
साइलेंस” की अवधारणा को चरम राष्ट्रवादी उन्माद में जो ढकने का काम करने का जो
प्रयास मुख्यधारा की मीडिया ने किया वो यह बताता है कि मीडिया अब सरोकारों की नहीं
सत्ता के पीछे भागती है.यह वही मीडिया है जो “हैदर” में काश्मीर की अमानवीयता को
राष्ट्रीयता के खिलाफ मानता है.यह फिल्म थोथा और थोपा
गया राष्ट्रवाद को सिरे से ख़ारिज करती है और नरेंद्र दामोदरदस मोदी की यात्रा के
विरोध को देशद्रोह से जोड़ने के लिए वैचारिक आधार तय करती नजर आती है.वैचारिक
फासीवाद के इस दौर में जब “स्पाइरल ऑफ़ साइलेंस” को तोड़ने का काम हैदर और सोशल
मीडिया करती हुई नजर आती है.मोदीसन स्क्वायर के जूनून को राष्ट्रीयता और विरोध को
देशद्रोह की अवधारणाओं से जोड़ने यह मीडिया अपने दायित्वों से गुमराह दिखाई देती
है.मीडिया का वर्तमान रुख यह बताता है कि जो सत्ता के विरुद्ध होगा वो देशद्रोही
होगा.
मुख्यधारा की मीडिया ने हमेशा मुद्दों से भटका कर अफीम खिला कर
मदहोश करने का काम किया है.जब माननीय उच्चतम न्यायालय मोदी सरकार को कुंभकर्ण कहती
है तो आलोचनाओं के केंद में नहीं आती है.मोदी सरकार कालाधन के मुद्दे पर सवालों के
घेरे में नहीं आती.सत्ता के सौ दिन पर हिसाब नहीं लिया जाता है.ऐसा लगता है
मुख्यधारा की मीडिया नई सरकार और नई पूंजी की दलाल बन गई है.राजसत्ता की
चाटुकारिता की इसका काम बन गया है.जब भी नई राजसत्ता को सवालों के घेरे में रखने
की जरुरत पड़ती दिखाई देती है तब कोई न कोई बेमकसद का मुद्दा उछाल दिया जाता है और
अपनी दुम हिलाती मीडिया उसको तानने में लग जाती है.इसको साईं विवाद या दलितों के
मंदिर प्रवेश विवाद हो या लव जिहाद का मामला के तौर पर देखा जा सकता है.मेरठ में
लव जिहाद के जिस खबर को चुनावों के समय ताना गया था उसके झूठी होने पर उसको उतना
नहीं बताया गया कि यह खबर झूठी थी.यह बताता है कि किस तरह मीडिया सत्ता के एक
उपकरण के तौर पर काम कर रहा है.