सोमवार, 8 दिसंबर 2014

सेल्फी युग में मीडिया वाया शिव सर्जन कथा

सामाजिक परिवर्तन लाने कि दिशा में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.मीडिया का उद्देश्य लोकतंत्र में इसकी भूमिका लोगों को सूचित करना होता है जितना लोग बेहतर सूचित होंगें लोकतंत्र उतना ही अधिक गतिशील होगा.मीडिया का दायित्व मात्र सूचना,समाचार और मनोरंजन प्रदान करना ही नहीं होना चाहिए,खासकर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में जंहा औपनिवेशिक गुलामी कि एक लम्बे दौर से गुजरे हैं.जो आजादी के इतने सालों के बाद भी अपनी गरीबी और अशिक्षा के अभिशाप से मुक्त नहीं हुएं है उस देश में विवेकशील और विवेचनात्मक चेतना का विकास करना भी मीडिया का महत्वपूर्ण दायित्व माना जाता है,परन्तु सेल्फी पत्रकारिता के इस दौर में विवेकपूर्ण चेतना कि विकास तो दूर की बात हो गई है,बल्कि अतार्किक-पौराणिक बातों का खंडन भी नहीं किया जाता है.
भारतीय संविधान के मूल कर्तव्यों में यह बताया गया है कि “भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करेगा.” जिसकी संवैधानिक जिम्मेदारी अंधविश्वासों को दूर करके वैज्ञानिक चेतना का विकास करना था वो खुद इसको बढ़ा रहें हैं.परन्तु वर्तमान परिदृश्य में मीडिया इसका खंडन करना तो दूर महिमामंडित करने की कोशिश कर रहा है.आज के दौर की मीडिया राजसत्ता और नई पूंजी की दलाल बन गई है उसकी पक्षधरता आम लोगों के लिए न होकर सत्ता के लिए हो गई है.आज जिनको भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी विश्व का प्रथम सर्जन बता रहें हैं वो सिर्फ आस्था मात्र है कोई वैज्ञानिक अवधारणा नहीं.महाभारत काल में आपका विज्ञानं स्टेम सेल के विकास स्तर तक जा पहुंचा था,परन्तु मीडिया ने यह पड़ताल करने कि जरुरत नहीं समझी कि सच क्या है.करोड़ो लोगों के न्याय के लिए दिन-रात माइक लेकर चीखने वाले लोग इस पर खामोश क्यों हैं?सामान्यतया आस्था अतार्किक होता है और आस्था की अन्धविश्वास को बढ़ावा देता है.इसके कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास  संभव नहीं पाता है.अगर देश का प्रधानमंत्री एक अस्पलात के उद्घाटन के समय अन्धविश्वास वाली बात करतें हैं तो क्या यह तर्कसंगत प्रतीत होता है.तब यह और खतरनाक आयामों के तरफ संकेत करने वाला माना जा सकता है जब लोकतंत्र के प्रहरी और चौथे खंभे का दंभ भरने वाले पत्रकारिता और मीडिया में मुख्यधारा की आवाज नहीं बन पाती है. यह सवाल क्यों नहीं उठाया जाता है कि संविधान में जिस वैज्ञानिक चेतना के विकास कि बात की गई है उसको कौन पूरा करेगा.
मीडिया अपने सेल्फी युग में प्रवेश कर चूका है,जंहा हर कोई प्रधानमंत्री के साथ अपनी तस्वीर लेकर अपनी दुकान चमकाने के फ़िराक में है.क्या यह ऐसा ही है मानो जिस चौकीदार को हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी वो भी चोरों से मिला हुआ निकला. जिस अतार्किक आस्था पर मीडिया को चोट करना था वो उस व्यक्ति से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर सका कि आखिर जिस संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री के दायित्व को निभाना था वही व्यक्ति उस संविधान के अनुरूप काम नहीं करता तो सवालों के घेरे में नहीं आतें हैं.आखिर कोई इस पद पर रहते हुए इस तरह की बात कैसे बोल सकता है?और मीडिया के आलोचना के केंद्र में यह क्यों नहीं आता है.क्या मीडिया अपनी रीढ़ की हड्डी को दम में तब्दील कर चूका है जो राजसत्ता के आगे-पीछे हिलाता फिर रहा है.क्या मीडिया आलोचना की शक्ति को खो चूका है?
नाग-नागिन का बदला,स्वर्ग की सीढ़ी,प्रेत का साया,चुड़ैल की आत्मा जैसे भूत-प्रेतोंऔर जादू-टोने-टोटके  पर आधारित कार्यकम क्या विकासवाद के चक्र को पीछे ले जाने जैसा नहीं है.लगभग हर टी.वी चैनल ज्योतिष आधारित एक कार्यक्रम प्रसारित करता है.लगभग तमाम समाचारपत्रों-पत्रिकायों में राशिफल वाला कॉलम दिया जाता है.क्या यह सच में कोई विज्ञानं है?अगर यह सचमुच का कोई विज्ञानं है तो फिर आधुनिक तकनीकों से युक्त अस्पतालों के इस देश में क्या काम होगा,सारे बीमारियों को जादू-टोने से ठीक किया जा सकता है.जिस देश की मानव संसाधन मंत्री अपने किस्मत जानने के लिए ज्योतिषों के पास जाती है उस देश के मानव संसाधन का भविष्य कौन तय करेगा? भाजपा की पिछली सरकारों ने भी ज्योतिष शिक्षा को स्थापित करने की कोशिश कि थी,यह उसी उपक्रम का हिस्सा माना जा सकता है.इसी आस्था-अंधविश्वास का नाजायज परिणाम “रामपाल-आशाराम-निर्मल बाबा-आशुतोष महाराज” जैसे लोग हैं.
जिस देश में मंगलयान कि सफलता के लिए वैज्ञानिक देवी-देवतायों के शरण में जातें हैं,जिस देश में शनिवार को सबसे ज्यादा नींबू-मिर्च बिकतें हैं,जंहा गाड़ी नींबू-मिर्च के सहारे चलतें हैं उस देश में मीडिया कि भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है. मीडिया के इस परिवेश में सुरेन्द प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों की कमी महसूस कि जा सकती है जिन्होंने आस्था पर चोट कर अंधविश्वास को ख़त्म करने पर विवश कर दिया. 21 सितम्बर 1995 की सुबह “गणेश प्रतिमायों के दुग्धपान” संबंधी मामले में दोपहर दो बजे जनसंचार के प्रमुख माध्यम दूरदर्शन द्वारा इस संबंध में खबर प्रसारित किये जाने के बाद वैसे क्षेत्रों में यह अफवाह फ़ैल गई जंहा अब तक टेलीफोन के माध्यम से इस अफवाह को बल नहीं मिल पाया था.आस्था-विज्ञान-अंधविश्वास-भ्रम-चमत्कार के इस घटना को सुरेन्द्र प्रताप सिंह में दूरदर्शन के आधे घंटे के कार्यकर्म “आजतक” में दिखाया कि अगर गणेश की मूर्तियाँ दूध पी रही है मोची का जूते ठोकनें वाला तिपाया भी दुग्धपान करता है.उस दौर में जब मात्र टेलीफोन जैसे इलीट क्लास के संचार माध्यम ने आस्था और चमत्कार की सवारी करके इस अफवाह ने तेजी से प्रसार करने में सहायता दी थी तो आज के दौर में यह समझा जा सकता है कि किस तरह संचार माध्यम इस तरह के अवैज्ञानिक बातों को प्रचारित कर सकता है.संचार माध्यमों की क्षमता तो बढ़ी परन्तु सुरेन्द प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों की संख्या नगण्य हो गई है. आज के मीडियाकर्मी अपने सेल्फी खींचने में व्यस्त हैं.यह मीडिया का “चारण-चरण-वंदन काल” है जिसमें सत्ता के गलियारों में अपने लिए जगह बनाने कि कोशिश की जाती है.

पत्रकारिता सिर्फ मनोरजन का साधन मात्र नहीं है,लोकतंत्र में उसकी पहली भूमिका सूचित करने की है और विवेचनात्मक चेतना का विकास करना ताकि विकासवाद के चक्र को आगे बढाया जा सके.राजसत्ता और नई पूंजी की दलाल मीडिया ने सत्ता की जी-हुजूरी की सारी हदें पार कर दी है.आज वर्तमान बाजारवाद के दौर में मुनाफा ही एकमात्र साध्य और साधन हो गया है.भारत के मीडिया परिदृश्य में कोपरनिकस जैसे लोगों कि जरुरत है जिसने जलना मंजूर किया परन्तु अपनी मान्यता नहीं बदली.शिव को पहले सर्जन बताने वाले प्रधानमन्त्री पर सवाल न पूछकर सवाल करने वाले खुद सवालों के घेरे में आ गए हैं.

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

हिन्दुस्तानी मीडिया में किसका हिन्दुस्तान ?

“हिन्दुस्तानी कुतिया,रंडी,बंद करो यह ड्रामा” यह महिला पत्रकार शहाना बट्ट के लिए था जो इरान के टीवी चैनल प्रेस टीवी के लिए काश्मीर में बाढ़ की पर रिपोर्टिंग कर रही थी. जब लोगों ने इनको कैमरे के साथ देखा तो लोग आक्रोशित हो गए.ऐसा इसलिए हुआ क्योकि वे राष्ट्रीय मीडिया द्वारा दिखाई जा रही झूठी रिपोर्टिंग से नाराज थे.भारतीय मीडिया ने बार-बार यह सवाल उठाया की अभी अलगाववादी कश्मीरियों की सहायता के लिए क्यों नहीं आगे आये?जबकि यह सवाल तब क्यों नहीं उठाया गया कि नक्सलवादी बिहारियों को बाढ़ से बचाने के लिए क्यों नहीं आगे आया?यह सवाल मीडिया ने तब क्यों नहीं उल्फा से पूछा जब आसाम में बाढ़ आई थी?यह सिर्फ काश्मीर के लिए ही क्यों पूछा जा रहा था? यह सवाल सिर्फ काश्मीर के मुद्दे पर ही क्यों पूछा गया?क्या इसी कारण तो नहीं इस महिला पत्रकार को इतनी गन्दी गाली सुनना पडा.यह सच भी था की इनका मानना था कि पत्रकार झूठे है और मीडिया हालात का गलत चित्रण कर रही है.सेना पर पत्थर बाजी की खबरों को ज्यादा तबज्जों दे रही है,जबकि यह आक्रोश इन परिस्तिथि में आम भी हो सकता है.क्या सिर्फ यह काश्मीर में हो रहा है इसलिए इनकी राष्ट्रीयता पर सवाल खड़े करती है वही मीडिया जो चीन के राष्ट्रपति के भारत आने के बाद काश्मीर में बाढ़ के मुद्दे को भूल जाती है.यह गाली एक बानगी थी उस आक्रोश कि जिसमें मुख्यधारा की मीडिया कश्मीर की बाढ़ और बचाव के सिर्फ कुछ पहलू को ही दिखा रही थी.काश्मीर की बाढ़ की वास्तविकताओं का आइसवर्ग ही दिखा जबकि कई हिस्सों की तबाही के मंजर को न दिखाया गया न बचाया गया.यह गाली एक आक्रोश से लिपटा एक अहसास है.यह इस अवधारणा की ही पुष्टि करता है कि भारत सरकार के लिए काश्मीर के लोग दोयम दर्जे के निवासी हैं। सबसे पहले पर्यटकों को बाहर निकाला गया।यंहा तक कि यंहा कार्यरत भारतीय मजदूरों का बचाव प्राथमिकताओं में थी.वह देश जो कश्मीर को अपना अभिन्न हिस्सा मानता है, एक बार फिर कश्मीरियो का दिल जीतने में हार गया.यह विशेष शब्द "रंडी” जिसे किसी भी सभ्य समाज में फूहड़ माना जाता है, वह एक पत्रकार के रूप में सिर्फ शाहाना के लिए नहीं था बल्कि सारे मीडिया समाज के लिए था.
प्रश्न यह है की जो मीडिया काश्मीर की बाढ़ की रिपोर्टिंग में अपनी राष्ट्रीयता के चरम उन्माद में आ जाता है वो उन्माद,जोश और जूनून तब कंहा गायब हो जाता है जब देश के पूर्वोत्तर हिस्से में बाढ़ आती है.यह सवाल तब क्यों नहीं उठाये जाते कि इन राज्यों के अलगाववादी इस पीड़ा में कितने साथ खड़े हैं?जितना आपने काश्मीर के मुद्दे को ताना उसका दस प्रतिशत भी पूर्वोत्तर के बाढ़ पर न दिखाया गया और न ही बताया गया.मीडिया का काम अगर सच दिखाना ही है तो फिर यह सच क्यों नहीं दिखाया गया. मीडिया अमेरिका में मोदीसन में मोदी के चरम राष्ट्रवादी उन्माद को तो दिखाता है परन्तु उसी के पास प्रधानमंत्री मोदी से सवाल पूछते लोगों को क्यों नहीं दिखाया गया,जो 1984 और 2002 के नरसंहार के दोषियों को सजा दिलवाने की मांग कर रहे थे. “स्पाइरल ऑफ़ साइलेंस” की अवधारणा को चरम राष्ट्रवादी उन्माद में जो ढकने का काम करने का जो प्रयास मुख्यधारा की मीडिया ने किया वो यह बताता है कि मीडिया अब सरोकारों की नहीं सत्ता के पीछे भागती है.यह वही मीडिया है जो “हैदर” में काश्मीर की अमानवीयता को राष्ट्रीयता के खिलाफ मानता है.यह फिल्म थोथा और थोपा गया राष्ट्रवाद को सिरे से ख़ारिज करती है और नरेंद्र दामोदरदस मोदी की यात्रा के विरोध को देशद्रोह से जोड़ने के लिए वैचारिक आधार तय करती नजर आती है.वैचारिक फासीवाद के इस दौर में जब “स्पाइरल ऑफ़ साइलेंस” को तोड़ने का काम हैदर और सोशल मीडिया करती हुई नजर आती है.मोदीसन स्क्वायर के जूनून को राष्ट्रीयता और विरोध को देशद्रोह की अवधारणाओं से जोड़ने यह मीडिया अपने दायित्वों से गुमराह दिखाई देती है.मीडिया का वर्तमान रुख यह बताता है कि जो सत्ता के विरुद्ध होगा वो देशद्रोही होगा.

मुख्यधारा की मीडिया ने हमेशा मुद्दों से भटका कर अफीम खिला कर मदहोश करने का काम किया है.जब माननीय उच्चतम न्यायालय मोदी सरकार को कुंभकर्ण कहती है तो आलोचनाओं के केंद में नहीं आती है.मोदी सरकार कालाधन के मुद्दे पर सवालों के घेरे में नहीं आती.सत्ता के सौ दिन पर हिसाब नहीं लिया जाता है.ऐसा लगता है मुख्यधारा की मीडिया नई सरकार और नई पूंजी की दलाल बन गई है.राजसत्ता की चाटुकारिता की इसका काम बन गया है.जब भी नई राजसत्ता को सवालों के घेरे में रखने की जरुरत पड़ती दिखाई देती है तब कोई न कोई बेमकसद का मुद्दा उछाल दिया जाता है और अपनी दुम हिलाती मीडिया उसको तानने में लग जाती है.इसको साईं विवाद या दलितों के मंदिर प्रवेश विवाद हो या लव जिहाद का मामला के तौर पर देखा जा सकता है.मेरठ में लव जिहाद के जिस खबर को चुनावों के समय ताना गया था उसके झूठी होने पर उसको उतना नहीं बताया गया कि यह खबर झूठी थी.यह बताता है कि किस तरह मीडिया सत्ता के एक उपकरण के तौर पर काम कर रहा है.

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

सिनेमा की महिला : पतिता के ना से विश्व सुंदरी के हां तक



सिनेमा की महिला के इस खंड में यह बताने का प्रयास किया जाएगा की समय के प्रवाह में सिनेमा में काम करने की लक्ष्मण रेखा जो पतिता यानि वेश्यायों ने रखी थी उसको पार करने का काम बाद में न केवल भारत सुंदरी ने किया वरन विश्व सुन्दरियों के साथ-साथ अब यह विश्व के तमाम सुंदरियों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है. सिनेमा के प्रारंभ में ख़ास कर महिला कलाकारों की तो घोर आभाव थी.समकालीन परिदृश्यों में महिलाओं  का  सिनेमा में काम करना तो दूर मंच पर   किसी भी रूप में कलामंच पर आना असभ्य आचरण का लक्षण माना जाता था.महिलायों के लिए सामाजिक तौर पर एक लक्ष्मण रेखा बनी हुई थी कि कोई भी महिला सिनेमा में काम नहीं करेगी.उस दौर में महिला का सिनेमा में काम करना बेहद लज्जाजनक माना जाता था.पहली फिल्म की नायिका के लिए बहुत प्रयास के बाद भी कोई महिला तैयार नहीं हो पाई.जब निर्देशक ने यह प्रस्ताव वेश्यायों के पास ले गए तो उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा की “यह जरुर है की हम पतिता अवश्य है,परन्तु इतने भी पतित नहीं हैं की सिनेमा में काम करें”तब के समाज की यह लक्ष्मण रेखा थी की कोई भी महिला सिनेमा में जाना नहीं चाहती थी परन्तु दौर बदला और सिनेमा की महिलायों ने इस लक्ष्मण रेखा को तोड़ा और एक नहीं रेखा खींची.
1913 का वो दौर था जब पतिता भी सिनेमा में काम करने को मना करती थी और एक और दौर प्रारंभ हुआजब भारत सुंदरी इसमें आकर अभिनय करने लगी.यह सिलसिला प्रारंभ होता है 1952के भारत सुंदरी नूतन के प्रवेश से जिन्होंने सीमा,मिलन,सुजाता,अनाड़ी,सरस्वतीचंद,मैं तुलसी तेरे आँगन की जैसे फिल्मों में अभिनय किया. इसके बाद 1970 में मिस एशिया पैसेफिक पुरस्कार जीतकर जीनत अमान ने हलचल,हंगामा,हरे रामा-हरे कृष्णा,हीरा पन्ना जैसी फिल्मों में अभिनय किया.इसके बाद 1980 की भारत सुंदरी संगीता बिजलानी ने फिल्म हथियार से 1981की भारत सुंदरी मीनाक्षी शेषाद्री ने पेंटर बाबू और 1984 की जुही चावला ने क़यामत से क़यामत तक,1993 की भारत सुंदरी ने जब प्यार किसी से होता है से अभिनय प्रारंभ किया.1994 में भारत सुंदरी सुष्मिता सेन मिस यूनिवर्स और एश्वर्या राय मिस वर्ल्ड बनी,जिन्होंने लगभग 1996-1997 से सिनेमा में अभिनय करना प्रारंभ किया.ऐश्वर्या राय ने तमिल फिल्म इरुवर और सुष्मिता सेन ने फिल्म दस्तक से अपना फ़िल्मी जीवन प्रारंभ किया.1999की भारत सुंदरी गुल पनाग ने 2003 में धूप फिल्म से फ़िल्मी जीवन प्रारंभ किया.

 सन 2000 में एक बार फिर से भारत सुन्दरियों ने सिनेमा अभिनय के दिशा में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा.लारा दत्ता(मिस यूनिवर्स)प्रियंका चोपड़ा(मिस वर्ल्ड)दिया मिर्जा(मिस एशिया पैसेफिक)ने हिन्दी सिनेमा में प्रवेश किया. जंहा लारा दत्ता ने हिन्दी फिल्म ‘अंदाज’ से तो प्रियंका चोपड़ा ने तमिल फिल्म ‘थामिजहन’ से तो दिया मिर्जा ने ‘रहना है तेरे दिल में’ से अपना फ़िल्मी सफ़र प्रारंभ किया. इसके बाद यह सिलसिला जारी रहा 2001 की भारत सुंदरी सेलिना जेटली ने फिल्म जानशीं से तो  2002 की भारत सुंदरी नेहा धूपिया ने जूली फिल्म से अभिनय में कदम रखा. 2004 की भारत सुंदरी मिस इंडिया यूनिवर्स तनुश्री दत्ता और मिस इंडिया वर्ल्ड सयाली भगत ने क्रमशः ‘आशिक बनाया आपने’ और ‘तुम बिन’ से हिन्दी सिनेमा में प्रवेश किया.2007 की साराह ने भी ‘क्या सुपर कूल हैं हम’ से अपना कैरियर प्रारंभ किया.इसी साल की एक और सुंदरी ईशा गुप्ता ने भी सिनेमा में प्रवेश किया.2008 की मिस इंडिया यूनिवर्स सिमरन कौर ने ‘जो हम चाहें’ से अपना अभिनय सिनेमा में शुरू किया.यह दौर न केवल भारतीय सुंदरियों के साथ है बल्कि अब तो विदेशी महिलायें भी इस तरफ आ रही हैं.

यह बताता है की जो लक्ष्मण रेखा समाज ने 1913के दौर में महिलायों के लिए खीचा गया था जिसको पतिता भी तोड़ नहीं पा रही थी.समय के बदलाव में महिलायों ने खुद इसको तोड़ कर एक नई रेखा खीच ली.अब वो अपनी पहचान खुद बनाती है और कहती है “बादलों से उंची उडान मेरी,सबसे अलग पहचान मेरी” यह पहचान की मनोकामना ने अपने लिए एक नई लक्ष्मण रेखा बनाने की पहल को निरुपित करती है.

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

व्यावसायिक हिन्दी सिनेमा को नाजी यंत्रणा कैम्प से गुजारता एक फिल्म :हैदर



यह फिल्म उन दुखी माओं के नाम रात में जिनके बच्चे बिलखते है,उन हसीनाओं के नाम मिन्नत ओ ज़ारियों से बेहलते नहीं,उन ब्याहताओं के नाम जिनकी आँखों के गुल बेकार खिल खिल के मुरझा गए है.विशाल भरद्वाज की "हैदर" मात्र एक फिल्म नहीं है,व्यावसायिक हिन्दी सिनेमा को नाजी यंत्रणा कैम्प से गुजरने जैसा है.मैं राष्ट्रविरोधी नहीं हूं,परन्तु मैं उन पर टिप्पणी करना चाहता हूं जो अमानवीय है. हैदर को इसी नजरिये से देखने की जरुरत है.यह एक ऐसे सच की कहानी है.जंहा सारा काश्मीर जेल बना दिया है उन बदनीयत बाजों द्वारा जिनके पंखों में मौत छिपी थी.एक ऐसी जगह जंहा ऊपर खुदा और नीचे फ़ौज है,जिस फ़ौज ने वादी में बारूद छिड़क दिया.और कश्मीरियों के साथ कर दिया (CHUTZAP)चुत्स्पा. हैदर एक आवाज है उन बिलखते हुए कश्मीरियों के लिए जो सन्नाटे से सुर मिलकर उनके जख्मों पर मरहम लगाने का काम तो नहीं,बल्कि उन्हें दिखाने का काम कर रही है.एक ऐसी यंत्रणा जिसने उनके दोनों जहां और सारी दास्तान निगल गई.एक ऐसी जगह जंहा कभी किसी चूजे को चील उठा के ले जाती है तो कंही किसी बुलबुल को बाज जिन्दा नोच लेते हैं. मानो यह उस हिन्दुस्तान का हिस्सा था ही नहीं जंहा न दिन पर पहरें हैं न रात पर ताले.छल,कपट,घृणा,प्रपंच ने न जाने कितने नस्ल हज्म कर गया.इसने झेलम को रंग को लाल और स्वाद को खारा कर दिया.जब सत्ता ही अमानवीय हो जाए तो लोग किससे पूछे कितनी देर से दर्द को सहते जाना है,अंधी रात का हाथ पकड़ कर कब तक चलते जाना है.उनको यह एहसास हो रहा था 'हम थे या हम थे ही नहीं'झेलम का सर्द पानी इनके जख्मों पर मरहम नहीं लगा पाई,जो पहले ही खारा हो चूका था.बेशर्म-गुस्ताख आस्फा ने 'बूँद-बूँद बरसूँ मैं पानी-पानी खेलु-खेलु और बह जाऊँ' जैसे छोटी-छोटी कामनायों पर भी घना अंधेरा फैला दिया.इसने आधी वेवा (हाफ विडोज) और गुमशुदा (डिसअपियार्ड) लोगों की एक लम्बी दास्तान बना दी थी,लोग अपने घरों में जाने के लिए किसी के आई कार्ड चेक करने का इंतजार करने जैसे अवसाद में रहने लगे.लाशों के ठेर से जिन्दा निकलने की खुशियों में पागल होने लगें.इनको मरकर ही पता चलता कि जिन्दा थे तब जिए ही नहीं.मुजरिम अब भी शर्मिन्दा न था वह झंडा का कोई भी रंग चुनना चाहता था.कुछ लोग अब भी उस दिन दिन को देखने के लिए जिन्दा थे जिसका वादा था,पर वादा के जगह मिली झूठ,छल,प्रपंच,इर्ष्या.इसने हर जुल्म को मात दे डाली.यह पता नहीं चल रहा था की किसका झूठ,झूठ है किसके सच में सच नहीं.शक पर है यकीं तो यकीं पर शक हो रहा था.यह हर सवाल का जबाव भी सवाल था.भारत-पाकिस्तान दोनों ने इस खेल इनके वजूद हो स्वीकार ही नहीं किया.
यह फिल्म थोथा और थोपा गया राष्ट्रवाद को सिरे से ख़ारिज करती है.यह सत्ता-सेना-पुलिस-प्रशासन के प्रति एक सकारात्मक मानवीय हस्तक्षेप है.यह काश्मीर में कश्मीरियों के वजूद को टलोलती है.यह वही कश्मीरियत है "जो दरिया भी मैं दरख़्त भी मैं,झेलम भी मैं चिनार भी मैं,शिया भी मैं सुन्नी भी मैं,मैं हूं पंडित,मैं था मैं हूं मैं ही रहूंगा" का नाद करता है.जिसमें 3 लाख विस्थापित के वजूद को स्वीकार करता है.लाल चौक पर खड़ा होकर हैदर जो सवाल पूछता है वो अब भी भी सवाल ही है.हिन्दुस्तान में आजादी लाठी वाला लाया था ने गांधी की प्रासंगिकता को बचाए रखा उस दौर में जब कुछ फासीवादी लोग उनको ख़ारिज करने पर आमादा हैं.बंदूक सिर्फ इंतकाम लेना जानती है,जब तक हम अपने इंतकाम से आजाद नहीं हो जातें तब तक कोई आजादी आजाद नहीं कर सकती.इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता है.फिल्म में हैदर अपने इंतकाम से आजाद हो जाता है शायद यही सही वक़्त है आजादी का.अब और कब तक वक़्त का खून होता रहेगा.कब तक आधी वेवा अपने शौहर के मरने की खबर या डेड बॉडी के इंतजार में मरती रहेगी?रूह के बसेरे ने अंधेरा ही अंधेरा कर दिया है.फ़रिश्ते की लोरी सुनाने के लिए चले भी आओ की गुलशन का कारोबार चले.
हेमलेट का जितना भारतीय परिवेश और संस्कारों(संस्कृति) में एडोप्टेशन हो सकता था किया है.हैदर की अपनी खामियां हो सकती है/होगी.यह फिल्म नहीं एक कल्ट है जो शौर्य,शाहिद का विकास है.एक शानदार बेबाक और निर्भीक फिल्म के लिए शुक्रिया!!!!

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

समाचारपत्र और आजादी की लड़ाई



पत्रकारिता राष्ट्र की आत्मा और जीवनी शक्ति को पुनर्जीवित करने का सशक्त माध्यम है.वह राष्ट्रीय जीवन की समस्त अनुभूति का दर्पण होती है. समकालीन पत्रकारिता के माध्यम से राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों की पारदर्शक सच्चाई उजागर हो उठती है.इस काल के समाचारपत्रों में में सामयिक राजनीतिक सत्ता के प्रति विद्रोह की चेतना को देखा जा सकता है.
यधपि 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय समाचारपत्रों का प्रसार ज्यादा नहीं हुआ था परन्तु इस दौर में भी कुछ समाचारपत्र थे जो ब्रिटिश विरोधी चेतना का प्रचार कर रहे थे. इनमे से ‘पयाम-ए-आजादी’ पत्र में राजनीतिक संघर्षकारिता की धारा अत्यंत तीव्र है.इस दौर में ‘समाचार सुधावर्षण’, ‘दूरबीन’ और ‘सुल्तान-अल-अख़बार’ को ब्रिटिश कोप का शिकार बनना पड़ा. आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा ,लूटा दोनों हाथों हे प्यारा वतन हमारा इसी पत्र में प्रकाशित कविताओं से राजनीतिक चेतना का विकास व्यापक रूप से हुआ.
हम है इसके मालिक,हिंदुस्तान हमारा,
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा 
‘हिन्द पेट्रियट’ ने 1861 में नील दर्पण नमक नाटक प्रकाशित किया जो नीलहे गोरे व्यापारियों के किसानों के शोषण की व्यथा थी. इस समाचारपत्र ने ब्रिटिश नीतियों का विरोध किया. ‘अमृत बाजार पत्रिका’ पर सरकारी कर्मचारियों की आलोचना करने के लिए मुकदमा चलाया गया. ‘बंगाली’ समाचारपत्र ने स्वतंत्रता के पक्ष में लहर पैदा की. ‘ज्ञान प्रकाश’ ‘केसरी’ और ‘मराठा’ सम्पूर्ण भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रबल प्रचारक बन गए.
1907 से इलाहबाद से प्रकाशित ‘स्वराज’ नमक साप्ताहिक पत्र में राष्ट्रीय पराधीनता के आवासन और स्वाधीनता के आगमन की कामना प्रकट करते हुए संपादक के विज्ञापन इस प्रकार प्रकाशित की गई है- चाहिए स्वराज के लिए एक संपादक.वेतन दो सूखी रोटियाँ.एक ग्लास ठंडा पानी और हर सम्पादकीय के लिए दस साल की जेल.
 स्वतंत्रता किसी राष्ट्र की प्राणवायु होती है.इसके लिए पत्रकारिता ने जनमानस में चेतना का संचार किया.स्वराज की स्थापना हेतू ‘नृसिंह’ ने लिखा—स्वराज की आवश्यकता भारतवासियों को इसलिए है की विदेशी सरकार उनके आभाव को समझने में असमर्थ है.स्वराज के बिना भारत की गति नहीं है”.
राष्ट्रप्रेम की भावना को प्रसारित करने में दशरथ प्रसाद की ‘स्वदेशी’ ने भी योगदान दिया.
                   जो भरा नहीं भावों से बहती जिसमे रसधार नहीं
                   वह ह्रदय नहीं,पत्थर है,जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं 

  पराधीनता के काल में स्वाधीनता हेतु भारतीय जनमानस का आह्वान किया.
    “ऐ मादरे हिन्द न हो गमगीं दिन अच्छे आने वाले हैं
     आजादी का पैगाम तुम्हेँ हम जल्द सुनाने वाले है
              राजनीतिक स्तर पर जागरूकता फैलाने हेतु क्रांतिकारियों ने भी अपनी वैचारिक अवधारणा को जनमानस के सामने हिन्दी पत्रकारिता के माध्यम से प्रस्तुत किया. ‘विजय’ पत्र का कहना था कि- लेकर पूर्ण स्वराज स्वत्व अपना पहचानें     
                  आजादी या मौत यही प्रण में ठानें                
     ‘उचित वक्ता’ ने देशीय एकता पर जोर देते हुए आपसी मतभेद भुलाकर उनका अनुकरण करने को कहा एकता जिसके आभाव से यह अगण्य भारतवासी मुष्टि प्रमाण लोगों के पददलित हो रहें है”.पत्रकारिता न केवल सामाजिक और राजनीतिक बल्कि आर्थिक मुद्दों पर भी लोगों को जागरूक किया.इस क्षेत्र में भी पत्र-पत्रिका नवजागरण फैला रही थी. ‘मालवा अखबार’ का लिखना है कि भारतीयों को अक्ल नहीं है है की विलायत से कपड़ा बनकर आता है तथा हमारा रुपया विलायत जा रहा है
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने ब्रिटिश सत्ता के आर्थिक शोषण को उजागर किया है जैसे हजार धारा होकर गंगा समुंद्र में मिलती है वैसी ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरहों से इंग्लैंड जाती है. देश की दुर्दशा पर भारतेंदु व्यथित हों गए थे.
       अब जहँ देखहुँ तहँ दुखहि दुख दिखाई
        हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई   
                स्वदेशी के प्रति आग्रह करते हुए ‘उचित वक्ता’पत्र लिखता  है- देशी वस्तुयों का आदर देश की आवश्यकता है.यदि देशवासी विशेष कर बाबू लोग देशी वस्तुयों का समाकर करने लग जाये और विलायती कल की बनी सस्ती वस्तु की प्रतियोगिता में देशी हाथ की धनी वस्तुयों को बर्ताब में लेन कलग जाये तो अनायास देश की हीन दशा में परिवर्तन ही सकता है.
                   ‘परदेशी भारतवासी’ पत्र में अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने देशवासियोँ को जागरूक करते हुए कहा की-आओ समस्त देशवासियों हमलोग उपनिवेश और उसके पिट्टू इंग्लैंड की वस्तुयों का बहिष्कार करें”.
क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों ने अपनी विचारधारा ‘युगांतर’ से प्रचारित किया, ‘इनकी हरेक पंक्ति से अंग्रेजों के प्रति विद्वेष टपकता है. हरेक शब्द से क्रांति के लिए उत्तेजना झलकती है. ‘ग़दर’ अपने आप में क्रांति का दूत था. क्रांतिकारिता की तेजस्वी प्रतीक की पत्र ‘ग़दर’ ने मातृभूमि के लिए उत्सर्ग का तराना गुंजित किया.
        जो पूछे कौन हो तुम,तो कह दो बागी है नाम अपना  
        जुल्म मिटाना हमारा पेशा,ग़दर करना है काम अपना
‘बंदेमातरम्’, ‘काल’ , ‘संध्या’ , ‘कर्मयोगी’ ने क्रन्तिकारी आंदोलन में महत्वपूर्ण वैचारिक जनमत तैयार किया.
1878 .में प्रकाशित ‘भारतमित्र’ ने राष्ट्रीय आंदोलन में बहुत योगदान दिया. इसमें बालमुकुन्द गुप्त ने कर्जन के अत्याचारों का पर्दाफाश किया था.
1913 . में कानपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘प्रताप’ के गणेश शंकर विद्यार्थी को अपने लेखों के कारण सजा मिली तो, यह पत्र राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख प्रचारक बन गया.1920 में श्री बाबूराव पराड़कर ने ‘आज’ निकाला जो वह राष्ट्रीय समाचारों और विचारों का प्रबल समर्थक था. दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंद ने हिन्दी में वीर अर्जुन और उर्दू में तेज का प्रकाशन किया ये दोनों पत्र राष्ट्रीय आंदोलन के प्रबल पक्षधर रहे.
1881. में दयाल सिंह ने शीतलाकांत चटर्जी के संपादकत्व में ‘ट्रिब्यून’ प्रारम्भ किया. पंजाब के राष्ट्रवादी पत्रकारों में अंबा प्रसाद ने ‘हिन्दुस्थान’, ‘देश्भक्त’, ‘पेशवा’ में काम किया और राष्ट्रवादी विचारों को फ़ैलाने का काम किया.


भारत का कोई ऐसा प्रांत नहीं था जंहा राष्ट्रीयता का प्रचार करने वाले पत्रकार और पत्र न रहे हों .स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले समाचारपत्रों में ‘हिन्दी प्रदीप’, ‘बाम्बे क्रोनिकल’,’स्वराज’, ‘कौमी आवाज’ , ‘अभ्युदय’, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, ‘लीडर, इंडिपेंडेंट, ‘हिन्दू’ , ‘स्वदेशमित्रन’, ‘न्यू इंडिया’, सर्चलाईट, अल बिलाल, ‘नूतन सौराष्ट’  हमदर्द, हुंकार, मातृभूमि, कर्मवीर, तरुण राजस्थान, सैनिक, ‘आंध्र प्रभा’ , ‘जन्मभूमि’, ‘लोकमान्य’, ‘हितवाद’, ‘सकाल’, ‘समाज’, ‘प्रजातंत्र’,  ‘पंजाबी, ‘बंदेमातरम्’, ‘पीपुल’, ‘हरिजन’, ‘यंग इंडिया’,’नवजीवन’, ‘हरिजन सेवक’, ‘हरिजन बंधु’’, ‘फारबर्ड’, ‘नेशनल हेराल्ड’ अग्रणी रहे हैं.


बुधवार, 20 अगस्त 2014

ग्रामीण विकास @ न्यू मीडिया

सेलफोन @ किसान 





सेलफोन कारोबार के लिहाज से ऐसी सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं जो ग्रामीण भारत की कमाई को बेहतर बनाकर उसके कामकाज को भी बेहतर बना देते हैं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण हारवर्ड यूनिवर्सिटी के रॉबर्ट जेनसन द्वारा केरल के मछुआरों पर किए गए एक अध्ययन से देखने को मिलता है.जेनसन ने देखा कि राज्य के मछुआरे अपनी बोटों पर सवार होकर अलसुबह मछली की तलाश में निकल जाते हैं, बाद में पकड़ी गई मछलियों को किनारे पर बने दर्जनों स्थानों पर नीलाम कर देते हैं.सुबह साढ़े सात बजे शुरू होने वाली नीलामी साढ़े आठ बजे खत्म हो गईः चूंकि मछलियों के सड़ने की आशंका थी इसलिए उनको किनारे से जल्द से जल्द रिटेल मार्केट ले जाना जरूरी था.
                                       लेकिन तो मछुआरों और ही व्यापारियों को इस बात का आभास था कि किनारे के किस हिस्से में कितनी मछलियां लाई जाएंगी.इसका परिणाम यह होता था कि कई बार केवल 15 किलोमीटर के दायरे में ही मछलियों की संख्या में 50 फीसदी तक का अंतर होता था.कई बार तो बाजार में व्यापारियों को खाली हाथ ही लौटना पड़ता था, तो कुछ जगह ऐसी होती थीं जहां मछलियां का तो ढेर होता था लेकिन व्यापारियों का पता नहीं होता था.
                              बिना बिकी मछलियां जिनका प्रतिशत कई बार तो कुल मछलियों का छह फीसदी तक होता था,मछली सड़ने लगती थीं और उन्हें फेंकने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं होता था. जेनसन को यह बात समझ में गई कि अगर इन लोगों को सेलफोन मिल जाए तो मछलियों की इस बर्बादी को रोककर ये लोग और अधिक लाभ कमा सकते हैं. मछुआरों ने सेलफोन को हाथों हाथ लिया और वो व्यापारियों को समुद्र से वापसी के दौरान ही फोन करके मिलने का ठिकाना तय करने लगे तो सूचना की जिस कमी के कारण मछुआरों और व्यापारियों को पहले नुकसान उठाना पड़ता था,वह अब खत्म हो गई थी.वास्तव में कई मछुआरों ने तो समुद्र में रहते ही अपनी मछलियों की बिक्री तय करनी शुरू कर दी। फिर वो व्यापारी के साथ तय स्थान पर अपनी मछली लेकर पहुंचने लगे.
            इसका परिणाम यह हुआ की पहला मछली की कीमतों में लेकर उतार-चढ़ाव में नाटकीय गिरावट आई.अलग-अलग तटों पर मिलने वाली मछलियों की कीमतों में अंतर कम हो गया और इससे मछुआरों को ज्यादा स्थायित्व और सुरक्षा मिली.दूसरा, सेलफोन के इस्तेमाल के कारण किसी बाजार में ग्राहकों या व्यापारियों की कमी के कारण छह फीसदी मछलियों का फेंका जाना भी बंद हो गया.
                     जितनी भी मछलियां पकड़ी जाती थीं अब बेची जाती थीं और कुछ भी बरबाद नहीं होता था.इसका मतलब केवल मछुआरों बल्कि व्यापारियों की आय में भी इजाफा। यहां तक की उपभोक्ता को भी फायदा ही हुआः मछलियों की आपूर्ति में छह फीसदी के इजाफे के कारण उनकी कीमत में गिरावट देखी गई.जेनसन का रिसर्च इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे आईटी ग्रामीण इलाकों को भी कम खर्च में फायदे पहुंचा सकता है.
            संचार क्रांति के आम जन तक पहुँचने का असर यह हुआ कि किसानों को लाभ पहुचानें के लिए 2004 में किसान कॉल सेंटर  की स्थापना की गई. भारत के 144किसान कॉल सेंटरों से देश का कोई भी किसान 1515 नंबर  डायल करके मुफ्त मे अपनी कृषि विषयक समस्या का निदान पा सकता है. सूचना-संचार प्रोद्यौगिकी तकनीक के जरिए मोबाईल,इंटरनेट की सहायता से किसानों तक आवश्यक जानकारी तत्काल पहुँच जाती है.भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा चलाई जा रही वेबसाइट पर किसानों को उपयोगी जानकारी मिल जाती है.पंजाब के लुधियाना जिले मे भूजल का स्तर काफी काम हो चुका है. वेबसाइट के माध्यम से किस फसल को कब कितनी मात्रा मे पानी देना है इसकी जानकारी वेबसाइट ने उपलब्ध कराइ.लुधियाना मे सक्रिय एक निजी कंपनी ने आवश्यक जानकारी आसानी से पहुंचा दी.इसमें लुधियाना के 6000 किसानों शामिल है.
                                 आज भारत का किसान एस.एम.एस,मोबाईल वोयस सर्विसेज के जरिए मौसम की जानकारी प्राप्त कर रहा है.ई-चौपाल से खेती मे होने वाले खतरे काम हो रहें हैं.जून 2000 से किसानों के लिए यह प्रारंभ किया गया.इससे 40000 से अधिक गांव जुड गए हैं,इस कारण 25 लाख से अधिक किसानों लाभ प्राप्त कर रहें हैं.ई चौपाल इन किसानों की समस्याओं को सुलझा रहें है.सरकारी आंकड़ों के अनुसार जो गाँव ई चौपाल से जुड़े है वंहा कि किसानों ने पहले के अपेक्षा 10 प्रतिशत अधिक मुनाफा कमाया.
                    भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के मुताबिक उपग्रह आधारित रिमोट सेंसिंग डिजिटल भू-सर्वेक्षण,जैव तकनीकी और भूमि उपयोग के वैज्ञानिक सुझावों का लाभ अब किसानों को मोबाईल के माध्यम से ही मिल सकेगा इससे किसानों को कब ,क्या करना है इसकी जानकारी मोबाईल के माध्यम से मिल जाती है.भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नागपुर के निदेशक का मानना है कि खेती मेGPS औरGIS तकनीक के उपयोग से ना सिर्फ लागत काम होगी बल्कि पैदावार बढ़ाकर आत्मनिर्भरता हासिल करना भी आसान होगा.
                  फ़ैजाबाद के किसान राजेंद्र सिंह का कहना है कि वो धनिया की खेती करतें हैं,खेती के लिए खेत तैयार कर लिया था और बीज बोने की योजना थी.तो उनको ई चौपाल से उनको बारिश होने की सूचना मिली.फलत:बुबाई का कार्य रोक दिया.और नुकसान होने से बच गया.11
                      फसल किस मंडी में किस कीमत पर बेचनी है इसकी विवेचना भी अब मोबाईल और इंटरनेट के माध्यम से किया जा रहा है.इसके जरिए अलग-अलग मंडियों मे अनाज के ताजे भाव के बारे में पता लगाया जा सकता है.
            हरी सब्जी उत्पादक किसानों का मानना है कि सब्जियों को तोंडने के बाद अगर एक दिन रख दिया जाए तो उसकी कीमत कम मिलती है.इससे बचने के लिए किसानों ने अपने मोबाईल का उपयोग किया.मंडी के थोक व्यापरियों से संपर्क में रहकर जिस मंडी में उसकी ज्यादा माँग या कीमत होती वंहा जाकर अपनी सब्जी बेचते12.इस तरह न्यू मीडिया का उपयोग करके आर्थिक स्तर को विकास के साथ जोड़ा.
    सूचना की उपलब्धता की नाकामी को दूर करने की खासियत रखने वाले सेलफोन में ग्रामीण इलाके के लिए और भी कई खूबियां हैं। गांवों में ऐसे ठिकाने होते हैं जहां काम की तलाश में लोग और काम के लोगों की तलाश में आने वाले लोग दोनों जमा होते हैं। हर रोज सुबह यहां से दिहाड़ी मजदूरों को ले जाया जाता है।सूचना के अभाव में कई बार कई गांवों में लोग काम के लिए इंतजार ही करते रह जाते हैं तो कई गांवों में इनकी कमी पड़ जाती है। सेलफोन इस दिक्कत को  दूर करने में मददगार होता है। श्रमिक और ठेकेदार दोनों को ही पता होता है कि दूसरे सिरे पर या स्थिति है और दोनों जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति कंहा मिलेगा।सेलफोन की पहुँच ने आम आदमी को विकास तक जोड़ कर समावेशी विकास की अवधारणा को बल दिया.


टेलीमेडिसिन वाया न्यू मीडिया
              स्वास्थ्य के क्षेत्र मे मोबाईल और इंटरनेट द्वारा टेलीमेडिसिन ने ग्रामीण क्षेत्रों मे सकरात्मक काम किया है ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन मे कार्यरत आशा का कहना है की पहले किसी गर्भवती महिला की तबियत खराब होती थी तो उसको बुलाने के लिए किसी को आना पड़ता था,इस सारी प्रक्रिया में काफी समय लगता था.ऐसे में महिला की तबियत बिगडने का डर रहता था लेकिन अब मेरा मोबाईल नंबर हर ग्रामीण महिला के पास है ऐसे मे यथाशीघ्र स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो जाती है13ऐसी स्थिति के कारण प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा के मृत्यु दर मे कमी आई है.
                             टेलीमेडिसिन को स्थापित करने में इंटरनेट की बड़ी भूमिका है जिससे सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के रोगियों का इलाज विशेषज्ञों के द्वारा हो जाता है.न्यू मीडिया के द्वारा इस दिशा मे में भी सकरात्मक परिवर्तन हुए है जो मानवीय विकास को दिखाता है.

आधी दुनिया का पूरा परिवर्तन@न्यू मीडिया
                   सूचना संचार तकनीक ने ग्रामीण महिलायों के विकास और आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढाने में सहायता की है.बाबा जॉब्सडॉट कॉम नामक एक एजेंसी ने बंगलुरु के उपनगरीय इलाकों मे घरेलू कामगार महिलायों को घरेलू काम कर सकती थी का एक मोबाईल डाटाबेस तैयार कर इंटरनेट पर उस जानकारी को अपलोड कर दिया.जिससे इन महिला कामगारों को आसानी से काम मिला14इससे इनकी सामाजिक प्रस्थिति में आत्मनिर्भरता के आयाम जुड़े. इसने महिलायों को आर्थिक आजादी हेतु प्रेरित किया जो एक महत्वपूर्ण परिवर्तन की ओर संकेत करता है.इस तरह से सूचना-संचार तकनीक से उन लोगों को भी लाभ पहुंचा जो इसका प्रयोग करना नहीं जानते थे,इस प्रकार यह डिजिटल डिवाइड की आशंका को भी समाप्त करने मे सहायक रही.
ई-शासन @न्यू मीडिया
           सूचना संचार क्रांति वह विकास है जो प्रत्येक नागरिक तक पहुंचता है.इसने प्रशासन,बैंकिंग,रेलवे,शिक्षा,कृषि,चिकित्सा से संबधित सेवावों तक पहुँच आसान बनाई है.इसमें सुगमता के तत्व के साथ-साथ पारदर्शिता के तत्व भी हैं.क्योंकि अपारदर्शी व्यवस्था में ही भ्रष्टाचार पनपता है.इसकी सहायता से 31राज्यों(केंद्र शासित प्रदेश सहित)मे प्रस्तावित एक लाख जनसेवा केन्द्रों मे से 94000 केन्द्रों ने काम करना शुरू कर दिया है.इसमें 11 नक्सल प्रभावित राज्यों मे 12510 केंद्र शुरू किये गए हैं.जन सेवा केंद्र योजना विश्व मे दूरसंचार केंद्र स्थापित करने की सबसे बड़ी योजना है.इसके परिणामस्वरूप जन सेवायों का वितरण बेहतर ठंग से हो रहा है. 2006में नॅशनल ई-गवर्नेंस प्लान के तहत प्रस्तावित जनसेवा केंद्र की मदद से सेवायों को अंतिम छोर तक पहुचानें मे मदद मिली है.यह विकास के आयाम को दिखाता है.