सामाजिक परिवर्तन
लाने कि दिशा में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.मीडिया का उद्देश्य
लोकतंत्र में इसकी भूमिका लोगों को सूचित करना होता है जितना लोग बेहतर सूचित
होंगें लोकतंत्र उतना ही अधिक गतिशील होगा.मीडिया का दायित्व मात्र सूचना,समाचार
और मनोरंजन प्रदान करना ही नहीं होना चाहिए,खासकर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों
में जंहा औपनिवेशिक गुलामी कि एक लम्बे दौर से गुजरे हैं.जो आजादी के इतने सालों
के बाद भी अपनी गरीबी और अशिक्षा के अभिशाप से मुक्त नहीं हुएं है उस देश में
विवेकशील और विवेचनात्मक चेतना का विकास करना भी मीडिया का महत्वपूर्ण दायित्व
माना जाता है,परन्तु सेल्फी पत्रकारिता के इस दौर में विवेकपूर्ण चेतना कि विकास
तो दूर की बात हो गई है,बल्कि अतार्किक-पौराणिक बातों का खंडन भी नहीं किया जाता
है.
भारतीय संविधान के
मूल कर्तव्यों में यह बताया गया है कि “भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य
होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करेगा.” जिसकी
संवैधानिक जिम्मेदारी अंधविश्वासों को दूर करके वैज्ञानिक चेतना का विकास करना था
वो खुद इसको बढ़ा रहें हैं.परन्तु वर्तमान परिदृश्य में मीडिया इसका खंडन करना तो
दूर महिमामंडित करने की कोशिश कर रहा है.आज के दौर की मीडिया राजसत्ता और नई पूंजी
की दलाल बन गई है उसकी पक्षधरता आम लोगों के लिए न होकर सत्ता के लिए हो गई है.आज
जिनको भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी विश्व का प्रथम सर्जन बता रहें
हैं वो सिर्फ आस्था मात्र है कोई वैज्ञानिक अवधारणा नहीं.महाभारत काल में आपका
विज्ञानं स्टेम सेल के विकास स्तर तक जा पहुंचा था,परन्तु मीडिया ने यह पड़ताल करने
कि जरुरत नहीं समझी कि सच क्या है.करोड़ो लोगों के न्याय के लिए दिन-रात माइक लेकर
चीखने वाले लोग इस पर खामोश क्यों हैं?सामान्यतया आस्था अतार्किक होता है और आस्था
की अन्धविश्वास को बढ़ावा देता है.इसके कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की
भावना का विकास संभव नहीं पाता है.अगर देश
का प्रधानमंत्री एक अस्पलात के उद्घाटन के समय अन्धविश्वास वाली बात करतें हैं तो
क्या यह तर्कसंगत प्रतीत होता है.तब यह और खतरनाक आयामों के तरफ संकेत करने वाला
माना जा सकता है जब लोकतंत्र के प्रहरी और चौथे खंभे का दंभ भरने वाले पत्रकारिता
और मीडिया में मुख्यधारा की आवाज नहीं बन पाती है. यह सवाल क्यों नहीं उठाया जाता
है कि संविधान में जिस वैज्ञानिक चेतना के विकास कि बात की गई है उसको कौन पूरा
करेगा.
मीडिया अपने सेल्फी
युग में प्रवेश कर चूका है,जंहा हर कोई प्रधानमंत्री के साथ अपनी तस्वीर लेकर अपनी
दुकान चमकाने के फ़िराक में है.क्या यह ऐसा ही है मानो जिस चौकीदार को हमारी
सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी वो भी चोरों से मिला हुआ निकला. जिस अतार्किक
आस्था पर मीडिया को चोट करना था वो उस व्यक्ति से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर
सका कि आखिर जिस संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री के दायित्व को निभाना था वही
व्यक्ति उस संविधान के अनुरूप काम नहीं करता तो सवालों के घेरे में नहीं आतें हैं.आखिर
कोई इस पद पर रहते हुए इस तरह की बात कैसे बोल सकता है?और मीडिया के आलोचना के
केंद्र में यह क्यों नहीं आता है.क्या मीडिया अपनी रीढ़ की हड्डी को दम में तब्दील
कर चूका है जो राजसत्ता के आगे-पीछे हिलाता फिर रहा है.क्या मीडिया आलोचना की
शक्ति को खो चूका है?
नाग-नागिन का
बदला,स्वर्ग की सीढ़ी,प्रेत का साया,चुड़ैल की आत्मा जैसे भूत-प्रेतोंऔर
जादू-टोने-टोटके पर आधारित कार्यकम क्या
विकासवाद के चक्र को पीछे ले जाने जैसा नहीं है.लगभग हर टी.वी चैनल ज्योतिष आधारित
एक कार्यक्रम प्रसारित करता है.लगभग तमाम समाचारपत्रों-पत्रिकायों में राशिफल वाला
कॉलम दिया जाता है.क्या यह सच में कोई विज्ञानं है?अगर यह सचमुच का कोई विज्ञानं
है तो फिर आधुनिक तकनीकों से युक्त अस्पतालों के इस देश में क्या काम होगा,सारे
बीमारियों को जादू-टोने से ठीक किया जा सकता है.जिस देश की मानव संसाधन मंत्री
अपने किस्मत जानने के लिए ज्योतिषों के पास जाती है उस देश के मानव संसाधन का
भविष्य कौन तय करेगा? भाजपा की पिछली सरकारों ने भी ज्योतिष शिक्षा को स्थापित
करने की कोशिश कि थी,यह उसी उपक्रम का हिस्सा माना जा सकता है.इसी
आस्था-अंधविश्वास का नाजायज परिणाम “रामपाल-आशाराम-निर्मल बाबा-आशुतोष महाराज”
जैसे लोग हैं.
जिस देश में मंगलयान
कि सफलता के लिए वैज्ञानिक देवी-देवतायों के शरण में जातें हैं,जिस देश में शनिवार
को सबसे ज्यादा नींबू-मिर्च बिकतें हैं,जंहा गाड़ी नींबू-मिर्च के सहारे चलतें हैं
उस देश में मीडिया कि भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है. मीडिया के इस परिवेश में
सुरेन्द प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों की कमी महसूस कि जा सकती है जिन्होंने आस्था
पर चोट कर अंधविश्वास को ख़त्म करने पर विवश कर दिया. 21 सितम्बर 1995 की सुबह “गणेश प्रतिमायों
के दुग्धपान” संबंधी मामले में दोपहर दो बजे जनसंचार के प्रमुख माध्यम दूरदर्शन
द्वारा इस संबंध में खबर प्रसारित किये जाने के बाद वैसे क्षेत्रों में यह अफवाह
फ़ैल गई जंहा अब तक टेलीफोन के माध्यम से इस अफवाह को बल नहीं मिल पाया था.आस्था-विज्ञान-अंधविश्वास-भ्रम-चमत्कार
के इस घटना को सुरेन्द्र प्रताप सिंह में दूरदर्शन के आधे घंटे के कार्यकर्म
“आजतक” में दिखाया कि अगर गणेश की मूर्तियाँ दूध पी रही है मोची का जूते ठोकनें वाला
तिपाया भी दुग्धपान करता है.उस दौर में जब मात्र टेलीफोन जैसे इलीट क्लास के संचार
माध्यम ने आस्था और चमत्कार की सवारी करके इस अफवाह ने तेजी से प्रसार करने में
सहायता दी थी तो आज के दौर में यह समझा जा सकता है कि किस तरह संचार माध्यम इस तरह
के अवैज्ञानिक बातों को प्रचारित कर सकता है.संचार माध्यमों की क्षमता तो बढ़ी
परन्तु सुरेन्द प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों की संख्या नगण्य हो गई है. आज के
मीडियाकर्मी अपने सेल्फी खींचने में व्यस्त हैं.यह मीडिया का “चारण-चरण-वंदन काल”
है जिसमें सत्ता के गलियारों में अपने लिए जगह बनाने कि कोशिश की जाती है.
पत्रकारिता सिर्फ
मनोरजन का साधन मात्र नहीं है,लोकतंत्र में उसकी पहली भूमिका सूचित करने की है और
विवेचनात्मक चेतना का विकास करना ताकि विकासवाद के चक्र को आगे बढाया जा सके.राजसत्ता
और नई पूंजी की दलाल मीडिया ने सत्ता की जी-हुजूरी की सारी हदें पार कर दी है.आज
वर्तमान बाजारवाद के दौर में मुनाफा ही एकमात्र साध्य और साधन हो गया है.भारत के
मीडिया परिदृश्य में कोपरनिकस जैसे लोगों कि जरुरत है जिसने जलना मंजूर किया
परन्तु अपनी मान्यता नहीं बदली.शिव को पहले सर्जन बताने वाले प्रधानमन्त्री पर
सवाल न पूछकर सवाल करने वाले खुद सवालों के घेरे में आ गए हैं.