गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

आओ किसान-किसान खेलें : सरोकारी बनाम बाजारू मीडिया में किसान


राकेश- नंदिता जी ये नत्था हमारे लिए इतना जरुरी क्यों हैं?
नंदिता-नत्था you talking about Nattha……………………………… ok…………………….एक किसान अगर कर्ज में दबकर सुसाइड कर रहा है तुम्हें नहीं लगता ये Important है.
राकेश-हाँ! Important तो है लेकिन इन गावं में और बहुत सारे किसान रहते हैं उनका क्या वो important नहीं हैं?
नंदिता & You don’t band this story mid way Rakesh. Move on something else no..no...you have got to follow write with the conclusion.
राकेश-नंदिता जी इस गावं में एक किसान रहता था.होरी महतो...तो उसकी जमीन की नीलामी हो गई थी.सो ये जो बंजर जमीन होती है न बंजर,इसकी मिट्टी खोद के ईट के भट्टे पर बेच देता था और मेहनत में उसको 15-20 रुपये मिल जाते थे. 
नंदिता-What is point Rakesh?
राकेश-.....उसी की खोदे हुए गढ़े में उसकी लाश मिली लोग बोल रहें हैं कि भूख से मर गया,ये Important नहीं है?  
नंदिता-Fine if may you happy . We shall report we do feature on him.
राकेश-लेकिन....वो तो मर गया.
नंदिता & explain this to you……. Research कहता है कि लोग सिर्फ नत्था में interested हैं.Do you know why?  Because he is the original live suicide you have any How big this?
राकेश-नत्था के मिलने से सारा problem का solution हो जाएगा?
नंदिता& No……No…….कोई solution नहीं मिलने वाला------------------------------ कोई डॉक्टर बन जातें हैं कोई इंजीनियर बन जातें हैं,कोई पत्रकार बन जाता है.this what you do if you Can’t handle this than you are the wrong profession.



सिनेमा पीपली लाइव का यह संवाद ने केवल दो पत्रकारों का संवाद है बल्कि एक तरह से बाजार और सरोकार के लिए पत्रकारिता करने वालों के बीच का भी संवाद है.यह संवाद बाजारवाद के दवाब में आ चुकी पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों को लेकर हाशिये पर संघर्षरतपत्रकारिता के बीच का भी एक संवाद है.मुख्यधारा की पत्रकारिता में किसान मजदुर और आदिवासी गायब हैं.बाजार धीरे-धीरे इस तरह से सरोकार पर हावी होता चला गया की प्रोफेशन अब मिशन से कमीशन तक जा पहुंची है. ऐसा लगता है हम बाजार में खड़े हैं,बाजार के लिए बनें हैं तो क्या हमें बाजार ही चलाएगाराजदीप सरदेसाई जब यह सवाल पूछते हैं तो कोई करोड़ो दर्शकों से पूछे कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए न्यूज चैनल(ल्स)कैसे दिन-रात लड़तें हैंका दावा करने वालों से पूछा जा सकता है कि यह किन करोड़ों लोगों की बात करतें हैं? इन करोड़ो के न्याय का दावा करने वाले मीडिया में किसानों-मजदूरों-आदिवासियोंके मुद्दे क्यों नहीं सार्थकता से उठती हुई दिखाई/सुनाई देती है?हाशिये पर खड़े समाज  पर मीडिया समाज क्यों ध्यान नहीं देता?भुत-प्रेत,राखी-मीका,जुली-मटुकनाथ पर पैकेज बनाने वाला मीडिया क्यों इनकी की अनदेखी करता है?जो कुछ सरोकारों के साथ चलने का दावा करते हैं उनके प्रयास भी महज रस्म अदायगी क्यों होते हैं?
                            क्या बाजारवाद के इस दौर में महज इसलिए किसानों-मजदूरों-आदिवासियोंकी खबरों को जगह नहीं मिलती है क्योकिं उनके सरोकार मध्यवर्गीय विज्ञापन देने वाली कंपनियों के सरोकारों से मेल नहीं खाती ?तो क्या बाजारवाद के इस दौर में मीडिया समाचार वही जो व्यापार बढ़ाये के मुनाफे के तहत काम करती है?क्या भारतीय मीडिया नवपूंजीवाद के लाभ-हानि के दवाब के तहत काम करती है?यह सभी मीडिया के लिए भले सही न हो परन्तु भूमंडलीकरण के इस दौर में लोकतांत्रिक आग्रह कमजोर हुएं है.इसी का परिणाम है की मीडिया मिशन से कमीशन की तरफ छलांग लगा चुका है.
लोगों से सवाल पूछने वाला मीडिया समूह खुद सवालों के घेरे में आ गया है.क्यों नहीं किसानों-मजदूरों-आदिवासियोंके प्रति भारतीय मीडिया का रवैया अभी भी बदला है?न किसी सफाई कर्मचारी की मौत को लेकर सवाल उठाये जातें हैं और न ही कोई पैकेज बनाएं जातें है?क्यों नहीं किसानों-मजदूरों-आदिवासियों की घटना पर्याप्त ध्यान खीच पाती हैं?क्यों नहीं आदिवासी महिलायों की खबरें जगह पाती भारतीय मीडिया क्यों नहीं दलितों-पीड़ितों-शोषितों तरफ अपने आप को खड़ा पाता है.
किसानों की आत्महत्या की खबर महज एक खबर बनकर क्यों रह जाती है?आदिवासी लड़कियां गायब होती हैं,यह खबर नहीं बनती.क्यों सभी के लिए न्याय’ ‘कुछ के लिए अथाह मुनाफेके आगे  बेबस नजर आता है? क्या इसके पीछे सिर्फ बाजार का अर्थशास्त्र है  है या समाजशास्त्र भी है? सवाल उठता है की क्या मीडिया में इनके मुद्दे कोई मायने नहीं रखतें?क्या मीडिया की कोई जबाबदेही नहीं है?क्या पूंजी और बाजार अब मीडिया के सरोकारों और मिशन को संचालित करेगा?क्या अब मीडिया में सरोकारों को कमीशन से परखा जायेगा.तब किसी भी समाचार को लिखा/प्रसारित किया जाए.
सवाल है कि मीडिया सिर्फ उसी छोटे से तबके के लिए अपना बनता जा रहा है जिसकी तादाद महज 10-15 प्रतिशत है.बाजारवाद के दवाव में मुनाफा पहली प्राथमिकता बन गई है,और यह मुनाफा शहरी लोगों के बीच से होकर जाता है यही कारण है कि मुख्यधारा की मीडिया इंडियाका बनता जा रहा है.मीडिया का नया चेहरा अचानक उस वर्ग से जुड़ गया है जिसको उदारवादी अर्थव्यवस्था पाल-पोस रही है.मुनाफे का सिद्दान्त ख़बरों पर हावी हो गई है. देश की 74 प्रतिशत जनता जिनके नाम पर राजनीति की जाती है,उन्हें पत्रकारिता के मुख्यधारा में लाना चाहिए.
2009 में कोरबा में बन रहे स्टरलाईट कंपनी के बिजली घर की चिमनी गिरने से 40 मजदूरों की मौत हो गई थी. इन मजदूरों की मौत का समाचार एक कॉलम की खबर में सिमट गई.इस बिजलीघर का निर्माता चीन की कंपनी वेदांता के लिए कर रही थी.यह एक महत्वपूर्ण खबर थी,परन्तु यह खबर राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुखता से नहीं आई.शायद मजदुर इनके उपभोक्ता नहीं होंगें.इसी कारण बाजार के दवाब में सरोकार हार गई.
किसानों और मजदूरों की खबरों को नकारात्मक दिखाने-बताने की परंपरा मुख्यधारा की मीडिया में रहा है.19 नवम्बर 2009 को राजधानी दिल्ली में गन्ना किसानों की एक बड़ी रैली आयोजित कि गई थी.इसमें किसान केंद्र सरकार से गन्ने की अधिक कीमत मांग रहे थे.इनका कहना था था कि 2009 में चीनी कीमत पिछले साल की तुलना में लगभग दो गुनी हुई है.इन मुद्दों को लेकर मीडिया किसानों को लेकर नकारात्मक खबर प्रसारित-प्रकाशित किया गया.किसी मीडिया ने यह बताने का प्रयास नहीं किया कि यह किसान क्यों आए.जिन मुद्दों का संबंध 2/3 आबादी से है इनके सवाल मीडिया नहीं उठाता.किसान-मजदुर मीडिया में भी हाशिए पर ही हैं.सवाल यह है इतनी बड़ी आबादी को विमुख करके कोई मीडिया कैसे आपने तो राष्ट्रीय होने का दावा कर सकती है.
मीडिया हमेशा से किसानों,मजदूरों और आदिवासियों के मुद्दों को सार्थक तौर से कभी नहीं उठती रही है. 24-25 फरवरी 2015 को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ़ किसानों का जो जंतर-मंतर पर जो आक्रोश दिखा उसको कुंद करने का पूरा प्रयास मीडिया करता रहा.किसी ने भी इसमें किसानों की क्या समस्या है.किसान क्यों आएं हैं जैसे मुद्दों को किसी ने प्रमुखता ने नहीं उठाया.इस मुद्दों को मोदी बनाम अन्ना का भुमियुद्द में बदलने की पूरी कोशिश की गई.इस आन्दोलन में समस्याओं को चेहरों में बदलने की कोशिश करती नजर आई.मीडिया ने मुद्दों से चेहरों में बदलने की पूरी कोशिश की,यह एक आन्दोलन को मीडिया द्वारा मारने की कोशिश मानी जा सकती है.
जिस देश की मीडिया कपास किसानों के आत्महत्याओं की ख़बरों की तुलना में फैशन की ख़बरों को प्रमुखता देती है उस देश में यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि किसानों की समस्यायों को कितना महत्वपूर्ण माना जाता है. पी.साईनाथ ने राजेन्द्र माथुर स्मृति व्याख्यान देते हुए कहा था जब मुंबई में 2007 लक्मे फैशन वीक में कपास से बने सूती कपड़ों का प्रदर्शन किया जा रहा था लगभग इसी दौरान विदर्भ में किसान कपास की वजह से आत्महत्या कर रहे थे.इन दोनों घटनायों की सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि फैशन वीक को कवर करने के लिए जंहा 512 मान्यता प्राप्त पत्रकार पुरे हफ्ते मुंबई में डटे रहे और प्रतिदिन 100 पत्रकार इसको कवर कर रहे थे वंही विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं को कवर करने के लिए मुश्किल से मात्र 6 पत्रकार ही पहुंच पाए.इससे समझा जा सकता है कि संकट के दायर से गुजर रहे किसानों को भारतीय मुख्यधारा की मीडिया कितनी संवेदनशीलता दिखाता है.
                                सामाजिक परिवर्तन लाने कि दिशा में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.मीडिया का उद्देश्य लोकतंत्र में इसकी भूमिका लोगों को सूचित करना होता है जितना लोग बेहतर सूचित होंगें लोकतंत्र उतना ही अधिक गतिशील होगा.मीडिया का दायित्व मात्र सूचना,समाचार और मनोरंजन प्रदान करना ही नहीं होना चाहिए,खासकर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में जंहा औपनिवेशिक गुलामी कि एक लम्बे दौर से गुजरे हैं.जो आजादी के इतने सालों के बाद भी अपनी गरीबी और अशिक्षा के अभिशाप से मुक्त नहीं हुएं है उस देश में विवेकशील और विवेचनात्मक चेतना का विकास करना भी मीडिया का महत्वपूर्ण दायित्व माना जाता है पत्रकारिता सिर्फ मनोरजन का साधन मात्र नहीं है,लोकतंत्र में उसकी पहली भूमिका सूचित करने की है और विवेचनात्मक चेतना का विकास करना भी है.


इस बाजारवादी मीडिया परिवेश में भी कुछ प्रयास हैं जो सरोकारयुक्त  एक सकरात्मक हस्तक्षेप करती नजर आती है. पी साईनाथ की PARI (People's Archive of Rural India:The everyday lives of everyday people)परी” से उम्मीद है जो सरोकारों की पत्रकारिता को बचाए रखेगी.

क्योकिं “अभिव्यक्ति के खतरे अब उठाने ही होंगें”.यह सच है कि बाजारवादी मीडिया ने सरोकारों को पीछे छोड़ दिया है “है अंधेरी रात,पर दिया जलाना कब मना है”(हरिवंशराय बच्चन )