गुरुवार, 30 जुलाई 2015

मीडिया सर्कस में सरोकार बनाम सनसनी



तुम्हें एक जंतर देता हूं, जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ.को सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का विचार कर रहे हो वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा? क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा?”



गांधीजी के इसी जंतर को लेकर एक पत्रकार अक्षय सिंह देश के सबसे बदनाम रोजगार घोटालों में से एक व्यापमं घोटाले को कवर करने के लिए निकल जाता है और मध्यप्रदेश के झाबुआ के पास मेघनगर में संदिग्ध हालात में मौत हो जाती है. और,देश का सबसे तेज होने का दावा करने वाला चैनल आज तकने इस खबर को तब दिखाया जब दुसरे इस खबर को दिखाने-बताने लगे. मीडिया सर्कस में अक्षय सिंह जैसे ईमानदार पत्रकार कंहा टिकते हैं.ऐसे पत्रकार तो मीडिया एथिक्सके किताबों में दर्ज होतें हैं.
मीडिया सर्कस में हेमा मालिनी की नाक की कीमत सोनम की मौत से ज्यादा थी. जितनी खबर चार वर्षीय सोनम के मरने की नहीं थी उससे अधिक खबर हेमा मालिनी के नाक को लेकर थी. मीडिया ने हेमा की नाक की रिपोर्टिंग करके अपनी नाक ही कटाई है. हेमा मालिनी की सड़क दुर्घटना में घायल होना जितना सनसनी फैलता शायद ही सोनम के मरने की खबर से टेलिविज़न रेटिंग प्वाइंट को कोई फर्क पड़ता है. मीडिया सर्कस में जो बिकता है वही दिखता है. बेटी बचाओ-बेटी पढाओके इस दौर में जब मीडिया सेल्फी विथ डॉटरसे लैस जश्न-ए-सेल्फी के हैशटैग दौर में बेटियों के साथ सेल्फी भेज रहा था उस भावूक दौर में एक बेटी मरी पर कोई संवेदनशीलता नहीं थी. ज्यादा दिन नहीं हुए जब ऐसे ही किसी दिन मीडिया इस सेल्फी दिवस पर भावुकता के साथ टी.आर.पी बटोर रहा था. आज सोनम का बेटी होना काफी नहीं था क्योंकि आज एक और बेटी भी घायल हुई थी जो टी आर पी के लिए जरुरी थी.
इस मीडिया सर्कस में किसान चैनल की शुरुआत होना उतनी  बड़ी खबर नहीं है जितनी बड़ी खबर उस चैनल के प्रचार करने और न करने को लेकर विवाद में अमिताभ बच्चन का होना था. यह वही मीडिया सर्कस है जंहा हेमा मालिनी की खबर दिखाने को लेकर कोई मीटिंग नहीं होती पर अपने ही चैनल के पत्रकार के मौत की खबर को दिखाने-बताने के लिए मीटिंग के कई दौर चलतें हैं. न्यूज इस बैक और सर्कस इज ओभर का दावा करने वाले चैनलों ने सरोकार और सवालों को डायवर्ट करने का काम ही किया है. अब यह चैनल राजनीतिक दलों के विज्ञापन के उपकरण बनते जा रहें हैं. अब सरकार की चुप्पी पर कोई तीखे सवाल नहीं खड़े किये जातें हैं. अब व्यापमं घोटाले,लातित गेट पर मोदी की चुप्पी पर कोई सवाल नहीं खड़ा करता है. 100 करोड़ रूपये की गैस सब्सिडी ख़त्म करवाने के लिए उससे ज्यादा की रकम विज्ञापन में झोकने को लेकर कोई सवाल खड़े नहीं करता है. जब देश का कृषि मंत्री यह कहता है कि किसानों की आत्महत्या की पीछे बीमारी, नशा, दहेज़, प्रेम-प्रसंग, नपुंसकता जैसे कारण हैंऔर कोई चैनल इस मंत्री को कटघरे में खड़ा करते हुए नहीं दिखता है. कॉर्पोरेट जगत के टैक्स छूट या पैकेज को लेकर उतनी बैचनी मीडिया में नहीं दिखती जितनी परेशानी किसानों को मिलने वाले अनुदानों से होती है. योग के लिए सरकार के पास पैसा है परन्तु सामाजिक सेवायों में कटौती हो रही है, इसको लेकर कोई सवाल खड़ा नहीं करता. साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ाने वाले बयानों पर कोई सवाल नहीं उठाता है.
समाज और सरोकार को लेकर अगर कोई पत्रकार कुछ खोजी पत्रकारिता करने का प्रयास करता है या तो उसको अक्षय सिंह बनना होता है या तो मीडिया सर्कस में जोकर बनना पड़ता है. और यह जोकर न केवल दीवाली उपहार में आई-पेड लेता है बल्कि किसी मुख्यमंत्री की तस्वीर को दूध से अभिषेक करता है क्योंकि उसने पत्रकारों को राज्य सरकार के कर्मचारियों की तरह हेल्थ-कार्ड की सुविधा का लाभ दिया. यह तेलंगाना में पत्रकारों द्वारा मुख्यमंत्री का किया गया अभिषेक था. यह वही राज्य है जिसने फरवरी 2015 में सचिवालय में मीडिया की पावंदी लगा दी थी. यह प्रकरण बताता है कि मीडिया सर्कस में जोकरों ने किस हद तक चाटुकारिता को अपनाकर सरोकार को सनसनी के हाथों गिरवी रखा है.
जब मोदी सरकार को लगा कि मुख्यधारा की मीडिया हमेशा के लिए सेल्फी युगमें नहीं रह सकती या कुछ मीडिया जो भविष्य में तीखे सवालों से घेर सकती है. उनको नियंत्रण में रखने की मुहीम शुरू कर दी है. मोदी की चुप्पीऔर मौनेंद्र मोदीपर सवाल हों उससे मोदी सरकार ने पहले खबरों को मारा फिर बात न बनी तो खबरों के स्रोतों को रोकने की कोशिश शुरू की. सबसे पहले प्रेस सूचना ब्यूरो से मान्यता प्राप्त पत्रकारों को अब प्रतिवर्ष पुलिस वेरिफिकेशन करवाना होगा. इससे मान्यता प्राप्त पत्रकारों को बिना किसी रोक-टोक के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों तक पहुंचने की सुविधा देता है. यह समाचार स्रोतों पर सरकार के नियंत्रण के दिशा में एक प्रयास है. इसी की अगली कड़ी वह आदेश है जिसके तहत गृह मंत्रालय में पत्रकारों पर रोक लगा दी गई है. पत्रकारों को अब गृह मंत्रालय से संबंधित खबरों के लिए प्रेस सूचना ब्यूरों पर निर्भर रहना होगा. अब पत्रकारों को उन्हीं सूचनाओं पर निर्भर रहना होगा जो सरकार बताना चाहती है. और यह तय है कि कोई भी सरकार किस तरह की खबर बताना चाहती है. यह तो एक शुरुआत है मीडिया पर नियंत्रण करने की,यह सत्ता के प्रतिष्ठान में चलने वाले अंदरूनी  खेलों तक पत्रकारों की पहुंच को रोकने की दिशा में एक शुरुआत है.  पत्रकारों को जेल जाने और कैदियों से मिलने और अधिकारीयों से बात करने पर पावंदी लगा दी गई है,यह प्रतिबन्ध सरासर मीडिया के लिए अपमानजनक है. यह आपातकाल की आहट ही है जंहा खबरों तक जाने के लिए खबरनवीसों को रोका जा रहा है. यह खोजी पत्रकारिता और स्टिंग ऑपरेशन जैसे सत्ता के पोल-खोल का गला घोटने जैसा ही है.
 मोदी सरकार का कहना है कि अब आपको जो भी खबरें लेनी होगी वो “मन की बात” से ही लेनी होगी. पर मोदी के मन में यह बात क्यों नहीं आती कि व्यापमं घोटाले और शिवराजसिंह चौहान पर आपकी राय क्या है ? अवैध जहरीली शराब पीकर मरने वालों को लेकर आपके मन में कोई बात क्यों नहीं आई ? किसानों की आत्महत्या पर आप खामोश कैसे रह लेते हैं ?  वसुंधरा राजे-ललित मोदी विवाद में आपकी चुप्पी का क्या राज है ? सुषमा स्वराज पर आप चुप क्यों हैं ? पंकजा मुंडे और विनोद तावड़े के घोटाले क्या स्किल इंडिया का नमूना है? स्कैम इंडिया की खबरों की अभी तो शुरुआत है, अभी से ही आप मीडिया पर नकेल कसने लगें ? साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति(?),साध्वी प्राची,योगी आदित्नाथ,गिरिराज सिंह के बिगड़े बोल पर भी आपकी बोली क्यों नहीं सुनाई दी ?  नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भारतीय जनता पार्टी हमेशा कांग्रेस पर यह आरोप लगाती थी कि उसकी सरकार पाक के हमलों का जवाब देने के मामले में कमजोर है. मोदी के कामकाज संभलाने के तकरीबन 50 दिन के भीतर पाकिस्तान ने 19 बार सीमा पर युद्धविराम का उल्लंघन किया। यानी लगभग हर तीसरे दिन पाक ने नियंत्रण रेखा के उसपार से गोलाबारी की और अब तक जारी है फिर भी आप खामोश हैं,56 इंच के सीना होने का दावा करने वाला चौकीदार सो गया था क्या कि गुरुदासपुर में आतंकियों ने हमला कर दिया.
“मेरा जीवन ही संदेश है” के तर्ज पर मोदी सरकार कहती है मेरा विज्ञापन ही मेरी सरकार है. ऐसा लगता है देश को मोदी सरकार नहीं एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी चला रही है. हर दिन कोई न कोई उत्सवधर्मिता का माहौल बनता दिखता है पर कोई काम होता नहीं दिखता ? मीडिया को यह पूछना चाहिए कि ‘मेक इन इंडिया’ से यह देश कितना बना ? ‘स्वच्छ भारत’ अभियान से भारत कितना स्वच्छ हुआ ? ‘स्किल इंडिया’ ने कितने लोगों को स्किल्ड बनाया ? ‘योग दिवस’ ने कितनों को स्वस्थ बनाया ? खबरनवीसों के पास खबर पूछने का माद्दा नहीं है क्योंकि वो अक्षय सिंह जैसे पत्रकार नहीं हैं, या तो वो आई पेड लेने वाले हैं या फिर मुख्यमंत्री का दूध से अभिषेक करने वालें हैं.
मोदीराज ने मीडिया ही नहीं बल्कि सिनेमा-संस्कृति पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया है. पहलाज निहलानी को सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनाना इसकी शुरुआत भर थी. फिर गजेन्द्र चौहान को फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) का अध्यक्ष बनाया. यह इसलिए हो रहा है कि शैलेश गुप्ता जैसे लोग “शपश मोदी की” जैसी वृतचित्र बना सके और मोदीराज की वैधानिकता जनमानस में स्थापित कर सके. और कोई मीडिया इसके खिलाफ सवाल न खड़ा कर सके. एक ऐसे मानसिकता का विकास किया जा रहा है जिसमें मोदीराज के विरोध का मतलब होगा देशद्रोह. अगर आप मेरे साथ नहीं हो तो आप मेरे विरुद्ध खड़े हो.
सरोकारों को लेकर मीडिया की चुप्पी खतरनाक आयामों की तरफ इशारा करती है. सरोकारों को सनसनी में डायवर्ट करने के इस प्रयास में मीडिया सर्कस भी शामिल है.