सोमवार, 26 जनवरी 2015

अंधराष्ट्रवाद के परिदृश्य में भारतीय मुसलमान और मीडिया








आखिर क्यों मुस्लिमों को ही बार-बार अपनी राष्ट्रीयता साबित करनी होती है? आखिर क्यों मुस्लमानों को शक की नजरों से देखा जाता है? वर्त्तमान परिदृश्य में अंधराष्ट्रवादी प्रतीकों का जो दौर उभर के सामने आ रहा है उसमें कोई और नहीं बल्कि भारत के उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी के भारतीयता और देशभक्ति पर सवाल खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है. जिस तरह से गणतंत्र दिवस के परेड के दौरान ली गई तस्वीरों को दिखाकर यह गलत सन्देश फ़ैलाने का प्रयास लोगों के द्वारा किया गया यह न केवल संवैधानिक पदधारक का अपमान है बल्कि एक सोशल मीडिया का शोषण(एब्यूज) भी है.आखिर इस मुल्क में हमेशा क्यों मुसलमानों के निष्ठा पर शक किया जाता है ?राष्ट्रीयता के अपमान का मामला तो प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री के खिलाफ बनता था जिनको अपने राष्ट्रीय झंडा के प्रोटोकाल के बारे में नहीं पता है.
आखिर इस देश में शाहरुख़ खान से ही क्यों पूछा जाता है कि इस साल आपने दीवाली कैसे मनाई? आखिर अमिताभ बच्चन से यह क्यों नहीं पूछा जाता है कि आपने ईद कैसे मनाई? मुस्लिमों के साथ यह दोहरा व्यव्हार क्या कोई सोची समझी साजिश का हिस्सा है?आखिर कब तक मुस्लिमों को अपनी देशभक्ति साबित करनी होगी और क्यों?
                  हिंदुस्तान के लगभग अठारह करोड़ मुसलमानों को भारतीय मुख्यधारा की मीडिया में आतंकवादी के मिथक,प्रतीकों और सफ़ेद टोपीके उपनामों से नवाजा गया है.भारत की तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया हमेशा से मुसलमानों को आतंकवाद के साथ जोड़ कर देखता रहा है(कुछ अखबार को छोड़कर). एक हाथ में कुरान और एक हाथ में लैपटॉप के जुमलेबाजी से आगे निकलना है तो इस मुख्यधारा की मीडिया को अपने चश्में का रंग बदलना होगा,उसको हरे रंग की स्याही से लिखने की सोच से निकलना होगा.

 जब आतंकी हमले के घंटे दो घंटे के अंदर पुलिस मनचाहे लोगों को शिकार बनाकर उठा ले जाती है तब तो मीडिया आरोपियों को आतंकी करार देते हुए और उनके शहर को आतंक का अड्डा बताते हुए पहले पन्ने पर काजग काले(हरे रंग से)किये रहते हैं  या स्पेशल रिपोर्ट में धागे से तम्बू बनाने/तानने की जुगत में दिन रात लगे होतें हैं.उनके जन्मस्थान में जाकर उनके घरवालों के मुंह में लगभग माइक घुसेड़ कर पूछते हैं की कैसा लगता है ?लेकिन बरसों बाद जब वही आरोपी बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं तो अव्वल तो वह इस ख़बर को लेता ही नहीं और अगर लेता भी है तो अंदर के पन्नों में एक कॉलम में या टिकर पर किसी औपचारिता की तरह.
 सोलह मई 2014 को जब अक्षरधाम कांड में आरोपमुक्त होने पर किसी मीडिया ने उस समय के गृहमंत्री(गुजरात) से सवाल क्यों नहीं पूछा की उन बेगुनाह भारतीयों का क्या होगा?कौन देगा इसके जवाब? भारतीय क्रिकेट टीम द्वारा मैच के हार एक पर गुनाहगार कौननाम से स्पेशल कार्यक्रम तानतेहैं,अब मीडिया के इस चारण काल में किसी भी मीडिया चैनल या हाउस के अन्दर इतनी मिशनरी ग्लूकोज बची है जो इन छ लोगों के गुनाह को निर्धारित और जबावदेही तय करने वालों के गुनाहों का हिसाब लिया जा सके.किसी में यह हिम्मत बची की बारह साल काल कोठरी में गुजरे इस लोगों के लिए गुनाहगार तय करे.क्या इनके द्वारा काल कोठरी में गुजरे गए बारह साल की कीमत एक क्रिकेट मैच से भी काम है? जो चैनल भुत-प्रेतों का टी.आर.पी तय करता है,बिना ड्राइवर की कार चलवा सकता है,स्वर्ग की सीढी बना सकता है, क्या वह इन भारतीयों के गुनाहगारों से सवाल भी नहीं पूछ सकता? अगर नहीं तो तुम वाचडॉग नहीं बन सकते सिर्फ डॉग बन सकते हो. जो राजसत्ता और नई पूंजी के सामने अपनी दूम हिलाते रहने को विवश हो. रीढविहीन मीडिया आज सत्ता के चरण-चारण वंदना कर रही है परन्तु मोहमद सलीम,अब्दुल कैयुम,सुलेमान मंसूरी की आंसू मीडिया को नहीं दिख रहा है.नहीं दिखा उस शहवान का दर्द जिसके अब्बा पिछले सालों से जेल में हैं.सलीम अपनी बेटी से दस साल बाद मिल सका क्योकिं उसके जेल जाने के बाद यह पैदा हुई थी,उस बच्ची के बचपन को अब्बू की जगह को कौन भरेगा?इस मीडिया को हरेक मुसलाम आतंकवादी ही दिखता है.
एक दूसरा पहलू है की अगर यही कर्नल पुरोहित,साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को न्यायलय बाईज्जत बरी करती तो क्या इस मीडिया का यही रवैया रहता ?इस घटना को मीडिया बस चलता है की शैली में देखता या कोई और रंग लगाता.खैर यह तो बाद में पता चलेगा.क्या यह रवैया इसलिए है क्योकिं इस मीडिया में मुस्लिमों की भागीदारी कम है या कोई और कारक है ? मीडिया को यह जान लेना चाहिए की मुस्लिमों की सकारात्मक खबर टिकर और फीलर से नहीं भरी जा सकती है.अगर एक हाथ में कुरान और दुसरे हाथ में लैपटोप के जुमलेबाजी को सार्थक करना है तो तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया को अपने  चश्मे का रंग बदलना होगा . 
क्या सिर्फ आतंकवादी मुसलमान ही हैं अगर नहीं तो गुजरात सरकार अपने छद्म ड्रिल में आतंकवाद के प्रतीक हे लिए मुस्लिम टोपी का प्रयोग क्यों करती है ? क्यों आतंकवादियो को मुसलमान चेहरे के रूप में दिखाया जाता है.


मीडिया में मुस्लिमों के कुछ प्रसंग-----
मेरी अच्छी किताब को साहित्य अकादमी मिला ही नहींशीर्षक से मुनव्वर राणा का साक्षात्कार तहलका’ (पाक्षिक पत्रिका) में प्रकाशित हुई है.जिसमें हिमांशु वाजपेयी ने इमरान प्रतापगढ़ी से संबंधित एक प्रश्न पूछा है.जबकि यह प्रश्न मूलतः मुनव्वर राणा से पूछा ही नहीं गया था.मुनव्वर राणा ने हमने तो अब तक जमींदारों को मारा हैं किसानों को नहींके शायराना अंदाज में कहा कि वह मुझको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने को लेकर साक्षात्कार था जिसमें इमरान पर कोई सवाल पूछा ही नहीं गया था.अगर मुन्नावर राणा की मानें तो यह पत्रकारिता का एक शर्मनाक पहलू है जिसके तहत अपने विचारों को किसी और के मुंह में रखकर बोलने की कोशिश है और वो भी तहलका जैसेस्वतंत्र-निष्पक्ष-निर्भीकपत्रिका होने का दावा करने वाली संस्थान के माध्यम से.अगर यह व्यक्तिगत रंजिश है तो इसके लिए इस पत्रकारिता को घसीटने का काम नहीं करें. यही सही समय है जब आपको ऐसी सारी परिघटनाओं के खिलाफ प्रतिरोध करने की जरुरत है नहीं तो कल एक सन्नाटा सा पसरा होगा.
पुलिस या फ़ौज की नौकरी करने के लिए आपको देश के प्रति अटूट देशभक्ति चाहिए.आपको मर मिटना पड़े तो मर मिटने के लिए तैयार हैं लेकिन हम इस्लाम के लिए मर मिटने के लिए तैयार हैं.ये खुलकर कोई नहीं कहेगा लेकिन ये बातें इनके भीतर गहरी मानसिकता में है.तो ये पुलिस में आते नहीं, फौज में जातें नहीं.उसके बाद कहते हैं कि हमारा प्रतिनिधत्व कम है,लेकिन वो खाली कुरान पढ़ना चाहते हैं. तो हम क्या करेंप्रकाश सिंह जब यह बोलतें हैं तो क्या यह सच एक एक ही पक्ष नहीं होता है जो उनका अपना सच है.क्या मुस्लिम समाज इसके बारे में क्या सोचता है इसका एक पक्ष नहीं होना चाहिए था?
पत्रकारिता के इन परिघटनाओं में बातों को सन्दर्भ से काटकर बताने कि जो प्रवृति आती जा रही है वो अपने खतरनाक आयामों तक जा सकती है.समाजवादी पार्टी से राज्य सभा के सांसद मुनव्वर सलीम के एटा में दिए गए बयान को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है. इनका कहना था कि हमारा लोहिया कहता था कि मूर्ति से जिन्दा नहीं होता आदमी,आदमी उसूलों से जिन्दा होता है.राम की मर्यादा,राम की सच्चाई राम का सर्वहारा को साथ लेकर अत्याचारियों से लड़ने का सन्देश....राम के ज़माने में लोकतान्त्रिक व्यवस्था की मजबूती कि समाज के कमजोर व्यक्ति को भी रानी से सवाल करने का अधिकार....इसी लिए इकबाल ने कहा है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज अहले नजर कहते हैं उनको इमामे हिन्द’. उनका कहना था कि हिन्दुस्तान में राम का मंदिर अगर बनाना चाहे तो कौन माई का लाल रोक सकता है,अगर राम मंदिर हिन्दुस्तान में नहीं बनेंगें तो कंहा बनेंगें ? इस बयान को जिस तरह संदर्भ से काट कर सिर्फ राम मंदिर पर केन्द्रित किया गया वह अपने हिस्से का अपना-अपना आधा-अधूरा सच-झूठ लेने-बोलने-सोचने की तरफ इशारा करता है
यही सही समय है जब आपको ऐसी सारी परिघटनाओं के खिलाफ प्रतिरोध करने की जरुरत है नहीं तो कल एक सन्नाटा सा पसरा होगा

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