|
मीडिया बहुलता:सरोकार या सनसनी |
वर्तमान प्रिंट मीडिया की प्रवृति को बाजारवादी शक्तियों ने भी
प्रभावित किया है. ‘मीडिया का अंडरवर्ल्ड’ में दिलीप मंडल ने बताया है कि किस तरह
विज्ञापन और बाजार मीडिया को निर्णायक रूप से नियंत्रित करने लगा है. मैकब्राइड
कमीशन का मानना था कि ‘राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संचार के प्रवाह पर बाजार और
व्यावसायिक हितों के बुरे असर को कम किया जा सके’. परन्तु मीडिया पर बाजार का असर
लगातार बढ़ता जा रहा है. प्रांजलि बंधु ने भारतीय संचार माध्यम में बताया है कि
बिड़ला समूह के ग्वालियर रेयान की फैक्टरी के कारण कालीकट के पास मावूर में चेलियार
नदी के प्रदुषण के मामले को 1999 में इंडियन एक्सप्रेस के कोझिकोड संस्करण में
प्रमुखता से उठाया. उसके बाद बिड़ला समूह ने विज्ञापन न देने की धमकी दी परिणामत:
समाचारपत्र ने इस मामले को फिर नहीं उठाया. इस तरह देखा जा सकता है कि किस तरह
विज्ञापन के दबाव के कारण जनसरोकारों के मुद्दे को कमजोर किया जा रहा है. इसी तरह
का मामला “2009में कोरबा(छतीसगढ़) में बन रहे स्टरलाइट कंपनी
के बिजलीघर की चिमनी गिरने से 40 लोगों की मौत की खबर की
राष्ट्रीय मीडिया में लगभग अनुपस्थिति एक चौंकाने वाली घटना है. इस बिजलीघर की
चिमनी को बनाने का ठेका चीन की एक कंपनी के पास था. न्यूज वैल्यू के लिहाज से यह
एक बड़ी खबर थी. विदेशी कंपनी के शामिल होने के कारण इस खबर का महत्त्व और भी
ज्यादा था,लेकिन यह खबर राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुखता से नहीं आई. चिमनी गिरने की
घटना की मीडिया में अनदेखी के साथ इस तथ्य को रखकर देखें कि स्टरलाइट और उसकी मूल
कंपनी वेदांता बड़े विज्ञापनदाताओं में हैं और 2009-10 में इस
कंपनी के पूरे पेज के विज्ञापनों की [पूरी श्रृंखला राष्ट्रीय मीडिया में आई है.”
इस तरह कि प्रवृति प्रिंट मीडिया में प्रवेश कर गई है.
|
हाउ करप्शन इन द इंडियन मीडिया अंडरमाइंस डेमोक्रसी |
‘पेड न्यूज सिंड्रोम’ की प्रवृति भी प्रिंट मीडिया में देखने को मिल
रही है प्रेस परिषद् के अनुसार ‘कोई भी समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और
तरफदारी के बदले किसी भी मीडिया(इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट) में जगह पाता है तो उसे
पेड न्यूज की श्रेणी में रखा जाएगा.” यधपि भारतीय प्रेस परिषद् ने चुनावों के
कवरेज बारे में दिशा-निर्देश दिया कि
‘प्रेस को किसी उम्मीदवार या पार्टी को आगे दिखाने के लिए किसी भी तरह का
आर्थिक या अन्य लाभ नहीं लेना चाहिए. प्रेस के किसी उम्मीदवार या पार्टी द्वारा
उया उनकी ओर से दिए जाने वाले आतिथ्य या सुविधा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.’
इसके बाद भी 2009
में यह बहुत बड़ी प्रवृति बनकर उभरी जिसने समाचार मीडिया को प्रभावित
किया. फलत: परंजॉय गुहा ठाकुरता और श्रीनिवास रेड्डी की समिति गठित हुई परन्तु
इनकी रिपोर्ट ‘हाउ करप्शन इन द इंडियन मीडिया अंडरमाइंस डेमोक्रसी’ कभी भारतीय
प्रेस परिषद् द्वारा सार्वजानिक नहीं की जा सकी. यह संकेत करता है कि पेड न्यूज का
बाजार कितना शक्तिशाली हो गया है.
|
मीडिया विविधता |
‘मीडिया मोनोपोली’ के रचनाकार बेन वैग्डकियान का मानना है कि ‘आधुनिक
लोकतंत्र में राजनीति और विचार के क्षेत्र में विविधता होनी चाहिए ताकि लोग उसके
बीच चुनाव कर सके.इसके लिए जरुरी है कि लोगों तक समाचार, साहित्य,मनोरंजन और
लोकसंस्कृति अलग-अलग और प्रतिस्पर्धी स्रोतों के जरिए पहुंचा’. वर्तमान परिवेश में
यह विविधता देखने को मिलती है. 1982 में द्वितीय प्रेस आयोग के रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों
की खबरों का समाचारपत्रों में न होने के कारकों पर प्रकाश डालते हुए बताया था कि
ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता, क्रयक्षमता और संचार की कमी मुख्य कारक हैं.
परंतु वर्तमान प्रिंट मीडिया के परिदृश्य में यह पूरी तरह से परिवर्तित हो गया है.
वर्तमान में लगभग 47 प्रतिशत प्रिंट मीडिया का हिस्सा
लघुसमाचारपत्रों से आता है. इसने प्रिंट मीडिया में विविधता और व्यापकता का समावेश
किया है. स्थानीयकरण की प्रवृति ने न केवल क्षेत्रीय विस्तार किया बल्कि विविधता
का भी समावेश किया,जो नवोन्मेष को भी बताता है. जगदलपुर(छतीसगढ़)के सांध्य समाचार
‘हाइवे चैनल’ ने स्थानीय बस स्टैंड पर एक मेल बॉक्स रखा है जिसमें कोई भी अपनी
समस्याओं को लिख कर अपनी खबर समाचारपत्र तक पहुंचा सकता है. बुंदेलखंड में समाज की
हाशिये की महिलायों ने ‘खबर लहरिया’ के माध्यम से जनसरोकारों के मुद्दे को अपनी खबर
बनाने का काम किया है तो आंध्रप्रदेश में ‘नवउद्यम’ के माध्यम से महिलायों ने
समस्यायों को उजागर किया है. जयपुर से ‘उजाला छड़ी’ ने स्थानीय विकास को मुद्दा
बनाया है तो देशबंधु और नवभारत ने छतीसगढ़ के स्थानीय विकास को समाचारपत्रों में
स्थान दिलाई. प्रिंट मीडिया के स्थानीयता ने इसके स्वरूप को लोकतांत्रिकरण किया
है.इसके परिणामस्वरूप ‘नागरिक पत्रकारिता’ का विकास हुआ. खबर लहरिया, नवउदयम,
हाइवे चैनल इसी लोकतांत्रिक सहभागिता मीडिया सिद्धांत का प्रतिफल है. इसके साथ-साथ
बड़े और मध्यम समाचारपत्रों के स्थानीय संस्करण से भी स्थानीयता को प्रिंट मीडिया
में महत्त्व मिल रहा है. इसी स्थानीयता और लोकतांत्रिकरण के कारण प्रिंट मीडिया
में गेटकीपर की शास्त्रीय अवधारणा कुछ हद तक खंडित हुई है. समाचारपत्रों की
स्थानीयता प्रिंट मीडिया की नई उभरती प्रवृति में सबसे महत्वपूर्ण है.
|
मीडिया खड़ा बाज़ार में |
विकास के मुद्दे को प्रमुखता न देने की नई प्रवृति प्रिंट मीडिया के
वर्तमान परिदृश्य में देखने को मिलता है.
‘द हूट’ पर प्रकाशित इंदिरा अकिजोम की शोध से यह प्रमाणित भी होता है कि
देश की मुख्यधारा की समाचारपत्रों में विकास के मुद्दे सबसे कम महत्वपूर्ण मुद्दे
के तौर पर उभर रहे हैं. द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, द इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान
टाइम्स, द हिंदू और द इकोनोमिक टाइम्स के अप्रैल-मई 2012 के समाचारों का
परिमाणात्मक और परिणामात्मक अंतर्वस्तु विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि
खेल, राजनीति और अपराध सबसे प्रमुखता से उठाये जाने वाले मुद्दे हैं. इन
समाचारपत्रों में विकास को 0.68 -2.09%, कृषि को 0.29
-4.9%,पर्यावरण को 0.08 -1%, राजनीति
12.7-23%, खेल 1.1- 28.99% और अपराध 6
-13.04% को इस तरह प्रमुखता दी गई थी. 2009
में ‘सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज’ द्वारा मुख्यधारा की प्रसारण मीडिया के एक अध्ययन
में भी भास्कर राव और पी.एन.वासंती ने बताया था कि कृषि, शिक्षा स्वास्थ्य और
पर्यावरण के मुद्दे सबसे कम उठाए जाने वाले मुद्दे हैं. इस तरह यह कहा जा सकता है
कि विकास के मुद्दे का प्रमुख न होना न केवल प्रिंट मीडिया बल्कि समाचार मीडिया की
प्रवृति है.
महात्मा गांधी के ‘अंतिम आदमी’ का आभाव भारतीय प्रिंट मीडिया में एक
नई प्रवृति है. उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भारतीय मीडिया से सवाल पूछे कि “क्या
आम नागरिक की चिंता के विषयों पर मीडिया में सार्वजानिक बहस होती हैं? क्या हाशिए
के लोगों, वंचितों और समाज के कमजोर तबकों के लोगों के सरोकार के लिए मीडिया में
पर्याप्त स्थान हैं? क्या संविधान के सामाजिक और राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने
की दिशा में हमारे मीडिया ने क्या योगदान किया है? भारतीय मीडिया में आम आदमी और
उसके सरोकारों को कौन सा स्थान दिया जाता है यह पी. साईनाथ के इस व्याख्यान से पता
लगता है “ 2007
मुंबई लक्मे फैशन वीक में कपास से बने सूती कपड़ों का प्रदर्शन किया
जा रहा था लगभग इसी दौरान विदर्भ में किसान कपास की वजह से आत्महत्या कर रहे थे.
इन दोनों घटनायों की सबसे बड़ी विडंवना यह है कि फैशन वीक को कवर करने के लिए जंहा
कोई 512 मान्यता प्राप्त पत्रकार पुरे हफ्ते मुंबई में डटे
रहे और कोई 100 पत्रकार रोजाना प्रवेशपत्र लेकर आते-जाते
रहे. वंही विदर्भ में किसानों की आत्महत्या को कवर करने के लिए बमुश्किल 6 पत्रकार ही पुरे देश से पहुंच पाए.” मीडिया की इस नई उभरती संस्कृति में
‘समाचार वही जो व्यापार बढाए’ की अवधारणा ने न्याय, विकास, लोकतंत्र,
किसानों-गरीबों-विस्थापितों की हित की बात करने इस परिदृश्य में नहीं दिख रहे हैं.
|
गंदा है पर धंधा है |
खोजी पत्रकारिता का आभाव प्रिंट मीडिया की एक प्रवृति उभरती दिख रही
है. प्रिंट मीडिया में खोजी पत्रकारिकता का जो दौर इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू,
ब्लिट्ज, जनसत्ता, संडे, रविवार, टेलीग्राफ, माया, इंडिया टुडे ने प्रारंभ किया था
वो अब दिखाई नहीं देती है. खोजी पत्रकारिता में भाषाई समाचारपत्रों ने भी की बड़ी
भूमिका निभाई थी जो सीमेंट घोटाला, भागलपुर आंखफोडवा कांड और भोपाल त्रासदी के तौर
पर देखा जा सकता है. परन्तु वर्तमान दौर में खोजी पत्रकारिता प्राय: कम हो रहे
हैं,तहलका और इंडियन एक्सप्रेस कुछ हद तक इस तरह की पत्रकारिता देखी जा सकती
है.