गुरुवार, 10 मार्च 2016

इश्क में लप्रेक होना



 लप्रेक अर्थात् लघु प्रेम कथा यह तीन कड़ियों  में है पर इसको सिरजा है चार लोगों ने. जब हमारे जीवन से लघु कथा समाप्त हो रहे थे और प्रेम विषय तो खैर "कोमा" में ही था तब प्रेम को आधार बनाकर लघुता में विराटता का समावेश लप्रेक के तौर पर उभर कर सामने आया.यह लड़ाई वर्चुअल स्पेस में अपने को अभिव्यक्त करने को लेकर उतनी ही है जितनी प्रेम को लेकर है.यह लड़ाई साहित्य के स्थापित मापदंडो को भी चुनौती देती है जो कभी नाथ-योगियों ने दिया था.वो चुनौती वाले तेवर अब भी इनके पास है. जब प्रेम विषय रीति से रति में बदलने लगी थी प्रेम को आधार बनाकर लप्रेक रचा.
"इश्क में शहर होना " की शुरुआत भले ही रवीश कुमार ने फेसबुक पर अपनी एक सीमित स्पेस के खिलाफ़ की थी पर लप्रेक के हर एक कहानी अपनी लघुता में भी विराटता को छुपाए हुए है.इश्क़ में शहर होना,के माध्यम से एक नए तरीके से शहर खोजने और महसूस करने-कराने के लिए रविश कुमार को आभार.इन छोटी-छोटी कहानियों में समय-समाज-राजनीति-परिवेश तो है ही,शहर और शहर के हर एक कोने को जीवंतता प्रदान की है.घर-बाहर की इस खापयुक्त संसार में जब किताब के पन्नों से गुजरते हैं तो एक अजीब सी खाप की दुनिया हमारा पीछा करने लगती है.यह किताब सुकून देती है कि इस खापयुक्त समाज में अपने शहर को जानने के लिए सबको इश्क करनी चाहिए."जान लवपाल" अगर कल लागू हुआ तो कल यह किताब संविधान होगा ऐसी उम्मीद है(यह नीले कोटवाला किताब को छाती से लगाए क्यों खड़ा है....देखना यही किताब हमें यही किताब हमेशा के लिए मिला देगी !!!)असली बगावत तो तभी करते हैं जब आप प्रेम में होतें हैं.इसको पढ़ते हुए आप इस प्रक्रिया से गुजरते हैं. 
रवीश जंहा शहर से इश्क़ कर रहे थे वंही गिरीन्द्र नाथ गावों की सोंधी सी खुशबू के साथ "इश्क में माटी सोना" से इश्क़ कर रहे थे यह और बात थी कि उनकी 'महबूबा'(डी टी सी की बसें) दिल्ली ही छोड़ आए थे.इनकी कहानी में रेणु की तरह 'धूल भी है फूल भी है'. इश्क में माटी सोना की गिरह जैसे-जैसे खुलती है आपको अपने आगोश में ले लेती है.जिस गिरीन्द्र के लिए 'शहर एक पता रहा' जो वंहा टिक न सका और  'जिंदगी प्यार है की है नज्म कोई' की तलाश में चलता रहा इन्हें अपने राहों में जब  'छावं और धुप से मोहब्बत' मिली तब तक आप इनके आगोश में आ जाते हैं पर जब 'जा-जा रे जमाना,हाय' में प्रवेश करते हैं तो आप स्तब्ध से रह जाते हैं. गिरीन्द्र जैसे जंगली किसान को अपने खेतों से ही इशकरोग हो गया जो लप्रेक में आपको अधिकतर जगह दिखाई देता है.जंहा जंगली फूल से कर्णफूल की जगह भरी जा रही है तो धान की बाली से नेग-शगुन.इसमें गावं है कदम्ब बाडी है,पोखर है,पोखर में मछली है.भादो में मेढ़क का संगीत तो है ही,साथ ही साथ इश्क व् राजनीति के घोषणापत्र भी है जो किसानी की टीस को और गहरा कर देता है.यंहा गाय-सुअर की बात तो है पर किसानी की बात नहीं.यह अन्य लप्रेक से इस मामले में अलग हैं कि राजनीती पर इतना सधा और सीधा आक्रमण किसी ने नहीं किया था.यंहा सेक्युलर सपने देखने की आजादी है,जिस सेक्युलर सपने के  न होने  के कारण जा-जा रे जमाना 'खंड' बना,जंहा शबाना और अर्जुन नहीं हैं,जंहा उमेश और रूपा न मिल सकें ,जंहा रामवचन और सुनीता एक न हो सके.  यंहा एक ऐसे स्कूल खोलने का सपना है जंहा बच्चों को बोलने का शउर सिखाया जाएगा.
 इश्क़ कोई न्यूज़ नहीं" क्योंकि यह न्यूज़ तब बनती है जब वो इश्क़ या तो पेड़ों पर लटके मिलते हैं या तो रेल के पटरियों पर! पर ,एक मासूम सा 'बाहरी' लड़का विनीत ने जिस तरह लप्रेक में रचा है वो मुझे गांधी विहार- नेहरु विहार- मुखर्जी नगर और बत्रा के उस रुमानियत के दौर में ले जाती हैं जंहा 'एगो रिज़ल्ट देके सालों के परमामिंट गाहक तोड़ के सीसीडी भेजे के काम करता है' यह उदासी बिरजू भैया कि ही नहीं है बल्कि यह उदासी मेरी भी है. क्योंकि गली में बैठी आंटीज आज भी गंदी स्माइल पास करती हैं. देखना यही किताब हमें हमेशा से मिला देगी का भ्रम जब टूटता है तो मेरे अंदर का ऋषभ भी उतना ही टूट सा जाता है, यह सच ही है कि 'ज़रूरी तो नहीं,सारे आजाद फ़ैसलों के रंग एक से हों' यह कहानी उनकी अपनी भोगी-देखी होकर भी यह ऐसा लगता है कि इसके पात्र हमारे बीच के ही हैं. यह उस दौर में ले जाती हैं जंहा मेको अपनी फ़िलिंग्स क़िल्ल करके क्या मिला. क्योकिं अब लोग प्यार के खेल में पॉलिटिक्स बतियाने लगते हैं. यह सच है कि जिस शख़्स को लोकतंत्र के बेसिक क़ायदों से प्यार नहीं है वो प्यार के भीतर के लोकतंत्र को कैसे ज़िंदा रखा पाता. उदास दोपहरी में आइसक्रीम पिघलने की टीस ६३ से ३६ की टीस को आकार देने के लिए शुक्रिया.लप्रेक में इश्क़ के छोटे से सिलेबस शायद ढाई आख़र और इसके बड़े सेमेस्टर शायद अनंत कथा को जिस तरह रखा है वो शानदार है. कहानी चाहे न्यूज़ रूम की हो या कैंपस की या रिटायर्ड व्यक्ति कि प्रेम की अविरल धारा शुरू से अंत तक दिखती है. इस लो बजट के प्यार में ख़बरें मरती है पर इश्क़ नहीं.
अगर विक्रम नायक का चित्रांकन न होता तो शायद यह किताब अधूरी रह जाती. विक्रम नायक ने जो रचा है वो रवीश-गिरीन्द्र -विनीत की कहानी को एक शक्ल देता है, उन कहानियों को एक आकार देता है,एक चेहरा देता है जिसके न रहने से शायद व्याख्या उतनी न हो पाती जितनी रचनाकार ने रचने कि कोशिश की थी. विक्रम ने सफ़ेद काग़ज़ पर जो रचा है वो कुछ वैसा ही है जैसा 'आषाढ़ का एक दिन' में मालिका ने रचा था जिसके ख़ाली पन्ने पर महाकाव्य सा रचा गया था.