1984 ई. में अमेरिकी फिल्म ‘घोस्टबस्टर्स’ में एक सेक्रेटरी
पात्र जब वैज्ञानिक से पूछती है कि ‘क्या वे पढना पसंद करते हैं?. तब वैज्ञानिक
पात्र कहता है ‘प्रिंट इज डेड’. इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का विषय था
परंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य पर सवाल खड़ा किया जा रहा है. 2008 ई.
में जेफ्फ़ गोमेज़ ने ‘प्रिंट इज डेड’ पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के
विलुप्तप्राय होने की अवधारणा को जन्म दिया तो रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के
विलुप्त होने की समयावधि चार्ट ही बना डाला. इसके अनुसार 2017ई. में संयुक्त राज अमेरिका से लेकर 2040 ई. तक विश्व
से समाचारपत्रों के प्रिंट संस्करण विलुप्त हो जाएंगे.
रोस डावसन द्वारा बनाई समय तालिका जिसमें समाचारपत्रों को विलुप्तप्राय होने की बात की गई है. |
रोस डावसन का मानना है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट की तेज गति से विकास
के कारण ऐसा संभव होगा. यह भविष्य के लिए एक मनोरंजक उपकल्पना लग सकती है .
वैश्विक रिपोर्ट देखने से रोस डावसन की आशंका निर्मूल साबित होती दिखती है.
वान-इफ्रा की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड प्रेस ट्रेंड 2014’ के अनुसार विश्व
में 534 मिलियन समाचारपत्र प्रतियों का प्रकाशन प्रतिदिन
होता है, जो पिछले वर्ष से 2% ज्यादा है. राजस्व के मामले
में प्रिंट संस्करण ने 163 बिलियन $ की राजस्व प्राप्त किया
जो कुल राजस्व का 93.7% है.
वैश्विक समाचारपत्र उधोग के राजस्व की प्रवृति |
राजस्व को इन आंकड़ों के माध्यम से समझा जा सकता है.
प्रिंट बनाम डिजिटल संस्करण के राजस्व में अंतर |
प्रिंट और डिजिटल संस्करण में राजस्व का हिस्सा |
डिजिटल और प्रिंट संस्करण के राजस्व को भी इसके माध्यम से देखा जा सकता है कि लगभग 93% हिस्सा प्रिंट माध्यम से आता है. इससे यह कहा जा सकता है कि प्रिंट मीडिया के विलुप्त होने की अवधारणा एक रोचक उपकल्पना मानी जा सकती है.
क्षेत्रीय समाचारपत्रों के आंकड़े
देखने से यह पता चलता है कि एशिया और लैटिन अमेरिका में प्रिंट संस्करण विकास की
ओर अग्रसर है.
भारतीय समाचारपत्रों के पंजीयक कार्यालय द्वारा जारी किये गए ‘प्रेस
इन इंडिया-2014-15’ के अनुसार 18.99% वृद्धि
हुई है. फिक्की–के.पी.एम.जी.‘इंडियन मीडिया एंड इंटरटेनमेंट
इन्डस्ट्री रिपोर्ट 2015’ के अनुसार 8.3% वृद्धि दर प्रिंट मीडिया में हुई है. इन रिपोर्टों के आधार पर यह कहा जा
सकता है कि भारत में प्रिंट मीडिया का भविष्य अभी बेहतर है.
समाचारपत्रों के बढ़ते कदम |
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 71वें राउंड की रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 2014 तक 71% ग्रामीण भारत और 86% प्रतिशत शहरी भारत साक्षर था.
साक्षरता के विकास की संभावनाओं को समाचारपत्रों के विकास के साथ जोड़कर देखा जा
सकता है. ज्यों-ज्यों साक्षरता का विकास होगा समाचारपत्रों को पाठक मिलेंगे. 2011
की जनगणना के अनुसार 80% से कम साक्षरता वाले
राज्यों की संख्या 15 है जिनमें हिन्दी ‘हार्टलैंड’ के
राज्यों की संख्या अधिकतर है. ग्रामीण भारत के मध्यवर्गीय निवासियों की क्रयशक्ति
में वृद्धि होने के कारण भी समाचारपत्रों की मांग बढ़ेगी. संचारविदों का मानना है
कि ग्रामीण क्षेत्रों में टेलीविजन के विकास ने समाचारों के प्रति जिज्ञासा को और
बढाया है जिसकी पूर्ति समाचारपत्रों से ही संभव होती है.
समाचारपत्र में विकास या वृद्धि |
इंटरनेट प्रौद्योगिकी के विकास ने प्रिंट मीडिया के भविष्य पर
प्रश्नचिन्ह लगा दिया है परंतु यह भी देखना उचित होगा कि भारत में इस माध्यम से
कितनी चुनौती मिलती है. भारत में इंटरनेट प्रयोक्ता की कुल अनुमानित संख्या जुलाई 2016 तक 462 मिलियन होगी, जो जनसंख्या का 34% होता है. भारत में प्रिंट को इस माध्यम से चुनौती मिलती नहीं दिख रही है.
क्या इंटरनेट भारत में समाचारपत्रों को खा जाएगा ? |
इस तरह यह कहा जा सकता है कि भारत में रोव डावसन की विलुप्तप्राय होने के समयकाल से डरने की जरुरत नहीं है.
प्रिंट मीडिया का भविष्य अभी बेहतर है और इस मीडिया का भविष्य हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाई पत्रकारिता पर निर्भर लगती है.
हिन्दी हार्टलैंड है भविष्य |
रॉबिन जेफ्री ने समाज में प्रिंट मीडिया के विकास हेतु तीन चरणों की
बात की है –‘रेयर’, ‘एलिट’ और ‘मास’. भारत ने ‘मास’ चरण में प्रवेश ही किया है अत:
प्रिंट मीडिया का भविष्य भारतीय परिदृश्य में सुरक्षित है.