रविवार, 28 जून 2015

आपातकाल की आहट : मरती खबरें,जलते खबरनवीस




"लोमड़ी पेड़ के नीचे पहुंची. उसने देखा ऊपर की डाल पर एक कौवा बैठा है, जिसने मुंह में रोटी दाब रखी है.लोमड़ी ने सोचा कि अगर कौवा गलती से मुंह खोल दे तो रोटी नीचे गिर जाएगी. नीचे गिर जाए तो मैं खा लूं.
लोमड़ी ने कौवे से कहा, ‘ भैया कौवे ! तुम तो मुक्त प्राणी हो, तुम्हारी बुद्धि, वाणी और तर्क का लोहा सभी मानते हैं. मार्क्सवाद पर तुम्हारी पकड़ भी गहरी है.वर्तमान परिस्थितियों में एक बुद्धिजीवी के दायित्व पर तुम्हारे विचार जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता होगी. यों भी तुम ऊंचाई पर बैठे हो, भाषण देकर हमें मार्गदर्शन देना तुम्हें शोभा देगा,बोलो मुंह खोले कौवे!
इमर्जेंसी का काल था. कौवे बहुत होशियार हो गए थे. चोंच से रोटी निकाल अपने हाथ में ले धीरे से कौवे ने कहा – ‘लोमड़ी बाई, शासन ने हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इसी शर्त पर दी है कि इसे मुंह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें. मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूं आजकल, क्षमा करें. यों मैं स्वतंत्र हूं, यह सही है और आश्चर्य नहीं समय आने पर मैं बोलूं भी.”
चालीस साल पहले आपातकाल के सामयिक काल को लेकर शरद जोशी ने जो व्यंग लिखा था आज फिर से प्रासंगिक हो गया है जब आपातकाल की आहटें धीमे से आती दिख रही है.जब सत्ता  अपने प्रतिष्ठानों को कमजोर करके प्रेस की आजादी और नागरिक स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्ध नजर आती नहीं दिख रही है. चालीस साल पहले जो रोटी कौवे को अपनी चोंच बंद रखने के लिए दी गई थी आज तक उनके मुंह में है, हालांकि अब इसके स्वरूप में परिवर्तन आ गया है.
चालीस साल पहले इंदिरा गांधी के ‘शॉक ट्रीटमेंट’ के प्रचार में ‘ऑल इंडिया रेडियो’ ने ‘ऑल इंदिरा रेडियो’ बनकर अपने हितों का बुरी तरह प्रयोग किया. मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने ‘मंडी में मीडिया’ में बताया है कि इसमें दूरदर्शन भी पीछे नहीं था-“दूरदर्शन का प्रयोग एक ओर जंहा इंदिरा गांधी की सकरात्मक छवि बनाने के लिए किया जाता रहा, वंही दूसरी ओर इसके जरिए संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम को प्रोत्साहित किया गया. इसी समय जयप्रकाश नारायण से जुड़े फुटेज ब्लैक आउट किए गए,इतना ही नहीं उस दौरान केवल उन्हीं सितारों की फ़िल्में दिखाई गई जिन्होंने आपातकाल का समर्थन किया. जनता जब आपातकाल के विरोध में रैली निकल रही थी तब दूरदर्शन रैली की बजाय ‘बॉबी’ फिल्म दिखा रहा था.”
आज भी आपातकाल से अलग तस्वीर दूरदर्शन और आकाशवाणी की की नहीं है,यह माध्यम तब भी सत्ता के अभिकरण के तौर पर काम करती नजर आ रही थी और आज भी है.पर एक खास परिवर्तन दिखाई देता है वो है कि निजी खबरिया चैनल भी अपनी तटस्थता को छोड़कर सत्ता का राग गाते नजर आ रहें हैं. इन चौबीस घंटों की खबरिया चैनल में खबरों की मौत हो रही है या कहें कि ख़बरों को मार दिया जा रहा है.इसको इन घटनाओं के संदर्भ में देखा-जाना जा सकता है.मुंबई के मलाड में जहरीली शराब पीकर सौ से अधिक लोगों की मौत की खबर को मार दिया गया क्योंकि विश्व योग दिवस का लाइव प्रसारण तानना जरुरी था. देश की आर्थिक राजधानी में सौ लोगों की मौत की खबरों को मार दिया गया क्योंकि उस राज्य में उनकी ही सत्ता है जो देश की मुख्यधारा की मीडिया को झुकने कह रहें हैं तो वो तलवे चाटने लगती है. क्या इतनी लोगों की मौत की खबरें प्राइम टाइम में बहस का विषय नहीं होनी चाहिए ? यह अघोषित सेंसरशिप का मामला ही दिखाई देता है जो अब यह तय नहीं कर रहा है कि क्या दिखाना है,बल्कि यह तय करती है कि क्या नहीं दिखाना है.
जिस तरह आपातकालीन दौर में सत्ता से टकराने का माद्दा रखने वाले पत्रकारों को जेलों की काल-कोठरी में बंद कर दिया गया था. उसी तरह आज के इस दौर में भी जगेन्द्र सिंह और संदीप कोठारी जैसे पत्रकारों की निर्मम हत्या की जा रही है. अगर यह आपातकाल की आहत नहीं है तो क्या है जंहा पत्रकारों को सत्य की रक्षा के लिए कोपरनिकस की तरह जलना-मरना मंजूर किया परन्तु भ्रष्ट सत्ता और उनके मान्यतायों को स्वीकार नहीं किया. आपातकाल में बिजली काटकर समाचारपत्रों की सेंसरशिप की जा रही थी,पर वर्तमान दौर में पत्रकारों को मारकर यह सेंसरशिप की जा रही है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है.
एक तरफ भारत के प्रधानमंत्री आपातकाल पर ट्विट करते हैं कि – “हमें उन लाखों लोगों पर गर्व हैं जिन्होंने आपातकाल का विरोध किया जिनके प्रयासों से हमारे लोकतंत्र का ताना-बाना बचा हुआ है.एक विविधतापूर्ण उदार लोकतंत्र विकास की बुनियाद है,हम अपने लोकतांत्रिक आदर्शों और चरित्रों को और मजबूत बनाने के हर संभव प्रयास करें.” दूसरी तरफ ‘मुंह में राम,बगल में नाथूराम’ की तर्ज पर लोकतांत्रिक संस्थायों को कमजोर करने या खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है. जब मालेगांव विस्फोट मामले में विशेष वकील रोहिणी सालियन जब यह बताती है कि ‘नई सरकार के आने के बाद मालेगांव मामले में आरोपियों के प्रति नरम रुख के लिए दवाब पड़ रहा है.’ तो मीडिया इसको लेकर सरकार को कठघरे में नहीं खड़ा करती कि आखिर कैसे न्याय प्रणाली को सत्ता अपने हितों के लिए प्रयोग कर रही है.आखिर मीडिया इसको लेकर सतर्क क्यों नहीं है ? क्या इसलिए क्योंकि इसमें साध्वी प्रज्ञा,कर्नल पुरोहित जैसे लोग शामिल हैं ? क्या यह इतनी ही सामान्य सी घटना होती अगर कोई अक्षरधाम कांड के आरोपियों को लेकर इस तरह की नरमी बरतने की बात कही होती ?
                              ‘अबकी बार,पारदर्शी सरकार’ का दावा करने वाली मोदी सरकार लोकतांत्रिक संस्थायों को कमजोर करने की कोशिश करने की भरसक कोशिश की. एक साल तक ‘मुख्य सतर्कता आयुक्त’ और ‘मुख्य सूचना आयुक्त’ की नियुक्ति स्थगित रही,परन्तु मीडिया ने मौन साधकर सत्ता को सहयोग ही किया. सूचना के अधिकार को कमजोर करने की कोशिश जारी है. इसको समझने के लिए नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री के काल को देखा जा सकता है कि किस तरह सत्ता का केंद्रीयकृत व्यवस्था द्वारा लोकतांत्रिक संस्थानों के क्षरण में सहयोग किया. वर्तमान मोदी सरकार भी सत्ता के उसी केन्द्रीयकरण की तरफ इशारा करती है जंहा राज्य के चुनाव भी मोदी के मुखौटे पर ही लड़ा जा रहा है. दरअसल यह सहकारी संघवाद का के ताबूत में कील जैसी साबित होगी. यह उसी दौर की याद दिलाता है जंहा ‘इंदिरा इज इंडिया’ थी. जंहा ‘सुषमा-वसुंधरा-पंकजा-स्मृति-शिवराज’ पर लगे आरोपों के लिए इनकी अलग क्लीन चिट जांच प्रणाली विकसित की है. यह वैचारिक दोगलापन को बताता है जंहा ललित मोदी की प्रियंका-राबर्ट से मुलाकात की जांच तो केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो से होनी चाहिए और सुषमा-वसुंधरा के सहयोग-मुलकात की जांच पार्टी करेगी.
                                  न्यायपालिका को प्रभावित करके पंगु बनाने की धीमी साजिश से भी आपातकाल की आहट को महसूस की जा सकती है. उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का किसी राज्य का राज्यपाल बनना, नरेंद्र मोदी के करीबी अमित शाह का मुकदमा लड़ने वाले वरिष्ठ वकील उदय ललित  का उच्चतम न्यायलय में न्यायधीश बनना, उच्चतम न्यायलय के वर्तमान मुख्य न्यायधीश एच.लक्ष्मीनारायणस्वामी दत्तू के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बाद भी सरकार के द्वारा कोई जांच न होना और मीडिया के द्वारा इसको कोई मुद्दा न बनाना यह इंगित करता है कि शायद यह गठजोड़ आपातकाल की तरफ न फिर एक बार ले जाए. आडवानी के अनुसार – “ भारत की राजनितिक व्यवस्था में आज भी आपातकाल की आशंका है,भविष्य में नागरिक स्वतंत्रता के निलंबन की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है.मौजूदा समय में लोकतंत्र को कुचलने वाली ताकतें मजबूत हैं.” क्या यह आशंका सच होगी ? जिस तरह लोकतंत्र के चारो खंभे एक साथ एक दुसरे के लिए खड़े दिखाई दे रहें हैं यह खतरनाक आयामों की तरफ संकेत करता है.
आपातकाल के दौरान जो रोटी कौवे के चोंच में डाली गई थी यह यह रोटी आज भी दी जा रही है.पहलाज निहलानी और गजेन्द्र चौहान ने ‘अबकी बार,मोदी सरकार’ में सहयोग किया था. अब उन कौवे को पद की रोटी दी गई है. यह सत्ता के अभिकरणों को सत्ता के साथ करने की कवायद है. कला-संस्कृति-साहित्य  को कभी राजसत्ता का आश्रय नहीं लेना चाहिए,परन्तु वर्तमान परिदृश्य में यह लक्ष्मणरेखा विलीन होती नजर आती है.
सेवंती नैनन के “नेहरु वॉज ए विजनरी, लालबहादुर शास्त्री इज ए रिविजनरी एंड इंदिरा गांधी ए टेलीविजनरी” कथन में यह जोड़ा जा सकता है कि “नरेंद्र मोदी इस ए मिडियानरी.” मोदी ने जिस तरह मीडिया का उपयोग किया है वो कुछ कुछ वैसा ही जैसा राजेन्द्र माथुर ने लिखा कि ‘आजादी के दीया को बुझाने का काम किया.’