मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

भूमंडलीकरण के युग में हरित पत्रकारिता : पर्यावरण और मीडिया





जीव का अपना एक विशिष्ट परिवेश होता है जिसके साथ वह लगातार परस्पर क्रिया करता रहता है,जिससे वह अपना निर्वाह करता है और जिसके प्रति वह पूरी तरह अनुकूलित रहता है यही परिवेश प्राकृतिक पर्यावरणहोता है. पर्यावरण का अभिप्राय है विकास अथवा लोगों की आर्थिक प्रगति को प्रभावित करने वाली बाहरी परिस्तिथियों यथा—पशु, पौधे, जीवन और कार्य की परिस्थितियां, समय व स्थान विशेष में फैली परिस्तिथियों का कुल योग पर्यावरण कहलाता है.समय के साथ-साथ पर्यावरण का दायरा बढ़ता और बदलता रहा है. मानवीय आवश्यकताओं और आकांक्षाओं का संतोष विकास का मुख्य उद्देश्य है. विकास के साथ-साथ संपोषणीय विकास की आवश्यकता होती है. इसमें ऐसा माना जाता है कि सभी की बुनियादें जरूरतें पूरी हो और सभी की बेहतर जीवन की तमन्ना पूरा करने का अवसर मिल सके.
पर्यवारण के साथ सतत विकास की अवधारणा जुड गई है जिसका तात्पर्य यह है कीएक ऐसा विकास है, जिससे वर्त्तमान की आवश्यकता इस तरह पूरी की जा रही हो कि भावी पीढियों को अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए समझौता न करना पड़े. इसके लिए यह जरुरी है की वर्तमान परिवेश का संरक्षण किया जाए.
इसके लिए यह जरुरी है की संचार माध्यम का प्रयोग किया जाए. संचार माध्यम का तात्पर्य उस समूह से है जिसमे प्रिंट, श्रव्य और दृश्य-श्रव्य माध्यमो द्वारा ज्ञान-सूचना और मनोरंजन का प्रसारण-प्रकाशन किया जाता है. मीडिया सूचना के विकास में अपनी महत्ती भूमिका निभा सकता है. आज के वर्तमान परिवेश में सूचना एक शक्ति मानी जाती है. यह लोगों में जागरूकता फैला कर पर्यवारण को संरक्षित करने में अपनी दायित्व निभा सकता है. परन्तु आज के भूमंडलीकृत परिदृश्य में जंहा मीडिया पूंजी-लाभ और मुनाफा की बात करती है वंहा इन मुद्दों को को क्यों कोई मीडिया समूह जगह देगा? क्या पर्यावरणीय संरक्षण को विकास को नकरात्मक रूप में प्रचारित किया जाता है? कुछ लोग अपने विस्थापन के मूल्य पर विकास नहीं देखना चाहते हैं, क्योंकि जब तक हम वनवासियों और जनजातीय लोगों को रोजगार नहीं देतें अथवा उनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए उनकी क्रय-शक्ति नहीं बढ़ाते,तबतक हम उन्हें अपने भोजन और आजीविका के लिए जंगल काटने से रोक नहीं सकते. वे जब स्वयं ही वंचित महसूस करते है,हम उनसे पशुयों के संरक्षण के लिए कैसे आग्रह कर सकते है? जो लोग गाँवो,गन्दी बस्तियों ,झुगी-झोपडियों में रहते है,उनको सागर, नदियों और वायु को स्वच्छ रखने के लिए कैसे कहा जा सकता है?खासकर तब जब उनका जीवन भी संदूषित होता है? इंदिरा गांधी के इन शब्दों पर आज की मीडिया का क्या रुख है? आज मीडिया जनपक्षधरता की बात करती है या नई पूंजी की ?


भूमंडलीकरण वस्तुतः विश्व के एकीकृत आर्थिक इकाई के रूप में विकसित होने की प्रक्रिया है. भूमंडलीकरण भौगोलिक सीमायों के समाप्त होने, घरेलू बाजारों को नियंत्रण मुक्त किये जाने और विज्ञानं व संचार तकनीकी की विकास विश्व के छोटे-बड़े राष्ट्रों को आपस में इस प्रकार जोड़ दिया है की परस्पर निर्भरता को नकारना कठिन हो गया है. उदारीकरण के इस परिदृश्य में विश्व ‘ग्लोबल विलेज’ में परिवर्तित हो गया है. इसके परिणामस्वरूप विश्व भर को बाजार बनाकर पूँजीवाद ने दुनिया भर के मनुष्य को उपभोक्तावाद में बदल दिया.उपभोक्तावाद भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक सार है. भूमंडलीय संस्कृति का आर्थिक स्तर पर उदारवादी आर्थिक नीतियों से गहरा संबंध है जिन्हें भूमंडलीकरण के नाम से जाना जाता है. सामान्यत भूमंडलीकरण का अर्थ किसी देश की अर्थव्यवस्था को विश्व के साथ एकीकृत कर देना होता है जिसका सीधा अर्थ होता है की आर्थिक नीतियों के संबंध में सर्वमान्य आर्थिक गतिविधियों से सरकारी नियंत्रण की समाप्ति और राज्य के हस्तक्षेप को सीमित करके आर्थिक प्रक्रिया में बाजार की शक्तियों को मुक्त रूप से काम करने की अनुमति मिल जाने से होती है.
इस परिदृश्य में पर्यवारण का विकास के नाम नाम पर शोषण और दोहन शुरू होता है. "विकास एक व्यापक संकल्पना है और पर्यावरण के साथ उसका जटिल और परिवर्तनीय संबंध है. औधोगिक और तकनीकी प्रगति के साथ विकास की परिभाषा और पर्यावरण की चिंता महत्वपूर्ण होती गई है. पहले विकास का मतलब बांधो का निर्माण करके बिजली का निर्माण करना था लेकिन आज विकास का अर्थ बाँध बनाने की वजह से विस्थापित हुए लोगों का पुनर्वास करना है. यह पर्यावरण के प्रति दुनिया की चिंता को दर्शाता है कि आज हम सिर्फ विकास को ही हम अपना लक्ष्य नहीं बनाते बलिक सतत और संपोषणीय विकास के व्यापक उद्देश्य का अनुसरण करते है.
मानवीय आवश्यकता और आकांक्षा का संतोष विकास का मुख्य उद्देश्य है. देश के अधिकतर लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार की आवश्यकता पूरी नहीं हो रही और प्राथमिक आवश्यकातों के आगे वे बेहतर जीवन की अपेक्षा करते है तो उनका ऐसा सोचना उचित है.एक ऐसा संसार जिसमे निर्धनता और असमानता व्याप्त हो, वह पर्यावरणीय और अन्य संकटों के प्रति सदैव संबेदनशील बना रहेगा.संपोषणीय विकास की दरकार है की सभी को बुनियादी जरुरतें पूरी हो और सभी को बेहतर जीवन की तमन्ना को पूरा करने का अवसर मिल सके.
श्रीमति इंदिरा गाँधी ने कहा था एक ओर जंहा संपन्न वर्ग हमारी गरीबी की ओर तिरस्कारपूर्वक देखता है वंही दूसरी ओर वे हमें अपने  तौर-तरीके के विरुद्ध चेतावनी भी देते हैं. हम पर्यावरण को और अधिक क्षति नहीं पहुँचाना चाहते और इसी के साथ-साथ हमारे तमाम लोगों की घोर गरीबी को एक क्षण के लिए भी भुलाया नहीं जा सकता. क्या गरीबी और जरुरत सबसे बड़े प्रदूषक नहीं हैं? उदाहरण के लिए जब तक हम वनवासियों और जनजातीय लोगों को रोजगार नहीं देतें अथवा उनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए उनकी क्रय-शक्ति नहीं बढ़ाते, तबतक हम उन्हें अपने भोजन और आजीविका के लिए जंगल काटने से रोक नहीं सकते. वे जब स्वयं ही वंचित महसूस करते है, हम उनसे पशुयों के संरक्षण के लिए कैसे आग्रह कर सकते है? जो लोग गाँवो,गन्दी बस्तियों, झुगी-झोपडियों में रहते है, उनको सागर, नदियों और वायु को स्वच्छ रखने के लिए कैसे कहा जा सकता है? खासकर तब जब उनका जीवन भी संदूषित होता है? निर्धनता की स्थितियों में पर्यावरण को नहीं सुधारा जा सकता और न ही विज्ञानं और प्रोद्यौगिकी के इस्तेमाल के बिना गरीबी दूर की जा सकती है
इस भूमंडलीय संस्कृति ने भारतीय मीडिया को भी प्रभावित किया है. जनपक्षधरता के मुद्दे गायब होते जा रहें हैं. मुख्यधारा की मीडिया में गरीबों, किसानों, मजदूरों, विस्थापितोंके लिए जगह काम होती जा रही है. इसकी जगह नई पूंजी के पोषक तत्वों को मिलता जा रहा है भारतीय मीडिया में सूचनायों और विचारों की जगह मनोरंजन को बढ़ावा दिया जा रहा है. इस तरह मीडिया ने बाजार के दवाब में और बाजार से अधिकतम लाभ कमाने के उद्देश्य से भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से को मीडिया में अनुपस्थित बना दिया है. मीडिया केवल मनोरंजनका साधन नहीं है, जनतंत्र में इनकी पहली भूमिका लोगों को सूचित करना है जो जितना बेहतर सूचित होंगे लोकतंत्र उतना ही गतिशील और मजबूत होगा.सवाल यह है क्या भारतीय मीडिया अपने मिशन को पूरा कर रही है या पत्रकारिता मिशन को पूरा कर रही है या पत्रकारिता मिशन से कमीशन बन गई है? सवाल सिर्फ सूचनायों और जानकारियों के स्तर का नहीं है बल्कि जनतंत्र में मीडिया,
राष्ट्रीय एजेंडा तय करती है.विकास के नाम पर होने वाला अंधाधुंध विनाश ने आज इस खूबसूरत नीले ग्रह को प्रदूषित कर दिया,प्रश्न यह खड़ा होता है की क्या इसमें मीडिया की भूमिका हो सकती है ?क्या मीडिया पर्यावरण के प्रति सगज उतरदायित्व निभाने में हमारी मदद कर सकता है?






 सेंटर फॉर मीडिया स्टडी के शोध के अनुसार वर्ष 2005-2009 में खबरिया टीवी चैनलों में मिलने वाला समय का प्रतिशत इस प्रकार था.


भारत अभी भी एक विकासशील देश ही है और अन्य देशों की तरह यह भी अनेक पर्यावरणीय मुद्दों में अटका हुआ है.निर्धनता चिंता का विषय बना हुआ है.अपर्याप्त साफ-सफाई औत स्वच्छ पेयजल सहित अनेक समस्याएं परेशानी का सबब बनी हुई है.जनसंख्या की अति उच्च दर प्राकृतिक संसाधनो का क्षरण और निवानिकरण करती है.दूसरी ओर आर्थिक विकास और तकनीकी तरक्की भी प्राकृतिक संसाधनों का भीषण दोहन कर रहें है जिसका नतीजा यह हुआ कि वायु,जल और नाभिकीय प्रदुषण ज्यादा बढ़ गई है.  जिस गति से भारत का विकास हो रहा है उसी तरह हमारे सामने कई तरह की चुनौतियां भी कड़ी हो गई है.ऐसी स्थिति में हमें विकास के साथ-साथ उन चुनौतियों को लेकर भी सजग रहना होगा.जंहा विकास की चकाचौंध है वंही सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण की भी है. यदि विश्व को संभावित प्रलयकारी पर्यावरणीय समस्यायों से बचाना है तो तत्काल आवश्यकता है कि विश्व के संभावित देश पर्यावरण के साथ संतुलित कायम करके सतत विकास का काम करें