गुरुवार, 15 जनवरी 2015

एक घटना:कई परिघटना --मीडिया से दरकता मुखौटा

(शाहीना अतरावला और वो बच्चा जो मैकडोनाल्ड में जगह न पा सका,पर भारतीय न्यूजरूम में खूब ताना गया)

एक घटना :----
10 जनवरी 2015,पुणे की एक घटना पर मुख्यधारा की मीडिया में यह सवाल खूब उछाला और ताना गया कि “सवाल के साथ हम आपके सामने हैं कि क्या गरीब बच्चे का कोल्ड ड्रिंक पीना गुनाह है ?क्या मल्टीनेशनल कंपनी की फास्टफूड चेन में गरीब बच्चों का जाना मना है? क्या मल्टीनेशनल कंपनी की फास्टफूड गरीब बच्चों को धक्के देकर बाहर निकाला जाता है?” पुणे में एक नामी फास्टफूड चेन में एक गरीब बच्चे को धक्का देकर बाहर किये जाने का एक ‘सनसनीखेज’ मामला सामने आया जिसे शाहीना अतरवाला ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था जिसे बाद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसपर खूब ताना. पुणे में मैकडोनाल्ड मल्टीनेशनल कंपनी की फास्टफूड स्टोर के पास एक “गरीब बच्चा” खड़ा था,जिसने शाहीना अतरवाला से कोल्ड ड्रिंक पीने की इच्छा जाहिर की थी.तब उस लड़की ने उसके कोल्ड ड्रिंक के लिए पैसा देकर उसके हाथों वो पर्ची थमा दी.जब वो बच्चा कोल्ड ड्रिंक लेने के लिए खड़ा था तो स्टाफ ने उसको कॉलर से पकड़ कर निकाल दिया,क्युकिं वो गरीब था उस स्टाफ का कहना था कि “ऐसे गरीब बच्चे को आने का कोई हक़ नहीं है”
          इसी के पृष्ठभूमि में उस मल्टीनेशनल फास्टफूड कंपनी की जगह भारतीय मुख्यधारा की मीडिया और उस गरीब बच्चे की जगह भारत की ‘गरीब-दलित-किसान’ को रख कर देखें तो यह साफ़ पता चल जाएगा कि जो काम मैकडोनाल्ड के उस मल्टीनेशनल फास्टफूड कंपनी ने गरीब बच्चे के साथ किया वही काम तो मुख्यधारा की मीडिया अब तक ‘गरीब-दलित-किसान’ के साथ करती रही है.जिस तरह z टी वी की एंकर गुस्से से यह सवाल पूछ रही थी कि क्या गरीब बच्चे को कोल्ड ड्रिंक पीने का हक़ नहीं है ? यह सवाल बहुत ही महत्वपूर्ण है,पर क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या किसानों की आत्महत्या की खबरों को आपके न्यूजरूम में जगह नहीं मिलनी चाहिए ? बिहार में 1999 में दलितों की हत्याकांड के सारे अभियुक्त के बरी होने की खबरें कोई सवाल खड़ा नहीं करती,क्या मीडिया के सवाल खड़े करने को घेरे में नहीं लाती? मुसलमानों के बेगुनाही की खबरों को आपके न्यूजरूम में जगह नहीं मिलनी चाहिय? क्या दलितों पर हो रहे अत्याचारों और उनके शोषण की ख़बरों को आपके न्यूजरूम में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी? क्या खैरलांजी और भगाना को आपके न्यूजरूम में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी ? मीडिया में दलितों-गरीबों-किसानों के मुद्दे को क्यों नहीं सार्थकता से उठाया-दिखाया-बताया जाता है?यह सवाल मीडिया ने अपने आप से क्यों नहीं पूछा कि हाशिये पर खड़े समाज पर क्यों नहीं ध्यान नहीं देता? भूत-प्रेत,मीका-राखी,जुली-मटुकनाथ पर धागे को तानकर तम्बू बनाने वाला मीडिया क्यों अपने सवालों को खड़ा नहीं कर पाता है? क्या बाजारवाद के इस दौर में महज इसलिए दलितों की खबरों को जगह नहीं मिलती है क्योकिं उनके सरोकार मध्यवर्गीय विज्ञापन देने वाली कंपनियों के सरोकारों से मेल नहीं खाती?तो क्या बाजारवाद के इस दौर में मीडिया “समाचार वही जो व्यापार बढ़ाये” के मुनाफे के तहत काम करती है?क्या भारतीय मीडिया नवपूंजीवाद के लाभ-हानि के दवाब के तहत काम करती है?यह सभी मीडिया के लिए भले सही न हो परन्तु भूमंडलीकरण के इस दौर में लोकतांत्रिक आग्रह कमजोर हुएं है.इसी का परिणाम है की मीडिया मिशन से कमीशन की तरफ छलांग लगा चुका है. मल्टीनेशनल कंपनी का नाम लेने से बचने वाली मीडिया अपने सरोकारों को बाजार के लिए खोना नहीं चाहती.
लोगों से सवाल पूछने वाला मीडिया समूह खुद सवालों के घेरे में आ गया है.क्यों नहीं दलितों के प्रति भारतीय मीडिया का रवैया अभी भी बदला है?न किसी सफाई कर्मचारी की मौत को लेकर सवाल उठाये जातें हैं और न ही कोई पैकेज बनाएं जातें है?क्यों नहीं दलितों के प्रति  हिंसा और बलात्कार की घटना पर्याप्त ध्यान खीच पाती हैं?क्यों नहीं आदिवासी महिलायों की खबरें जगह पाती है? क्यों नहीं मुस्लिमों की बेगुनाह रिहाई खबर बन पाती है?भारतीय मीडिया क्यों नहीं दलितों-पीड़ितों-शोषितों तरफ अपने आप को खड़ा पाता है? नागपुर में दलित को जिन्दा जला दिया जाता है और यह मुख्यधारा की मीडिया में खबर नहीं बन पाती है.दस बरस की सजा काट कर बाहर निकले बेगुनाह मुस्लिमों की तरफ से कोई भी मीडिया समूह सवाल नहीं खड़े करता है.दलित महिलायों को शोषण का शिकार बनना पड़ता है पर वो खबर नहीं बनती.आदिवासी लड़कियां गायब होती हैं,यह खबर नहीं बनती.क्यों ‘सभी के लिए न्याय’ ‘कुछ के लिए अथाह मुनाफे’ के आगे  बेबस नजर आता है? क्या इसके पीछे सिर्फ बाजार का अर्थशास्त्र है  है या समाजशास्त्र भी है?क्या इसी समाजशास्त्र के कारण बिहार के मुख्यमंत्री को एक कार्टून में चूहा बनाकर दिखाया जाता है? क्या चूहा दिखाकर उनकी जातीय पहचान और अस्मिता को चोट पहुँचाने का काम नहीं किया जा रहा है? पटना के गांधी मैदान में हुई भगदड़ और दुर्घटना को लेकर जिस तरह एक एंकर ने उनके साथ व्यवहार किया था वैसा ही व्यवहार वैसी ही घटना घटने पर राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री से क्यों नहीं किया गया? छतीसगढ़ में नसबंदी मामले पर वैसा ही व्यवहार रमण सिंह के साथ क्यों नहीं किया गया? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा सवाल खड़ा करना लोकतंत्र में बहुत जरुरी है परन्तु जब यह सवाल तब खुद सवालों के घेरे में आ जाता है जब यह पक्षपातपूर्ण दिखने लगता है.बिहार के मुख्यमंत्री को अगर उनके बयानों के आधार पर यह पैकेज बनाया जाता है कि “कब तक झेलना होगा” तो ऐसा ही पैकेज सत्ता पक्ष के लोगों के अनर्गल बयान वीरों पर क्यों नहीं बनाया जाता?
मीडिया ने जिस तरह इस मुद्दे को ताना और जिस संवेदनशीलता से इसकी रिपोर्टिंग की वो काबिले तारीफ है.इसके लिए चैनल वाले साधुवाद के पात्र हैं,पर यह मात्र एक क्षणिक प्रवृति नहीं होनी चाहिए.शायद अब किसानों-दलितों-गरीबों के मुद्दे न्यूजरूम में रहेंगें.या फिर बाजारबाद के हाथों कठपुलती बने रहेंगें.
अगर यह मात्र एक क्षणिक है तो 'सच दिखातें हैं हम' जैसे नारे बेमानी हैं? खबर हर कीमत पर दिखाने का हौसला रखने वाले क्या अब इसी तरह से उत्साह-उमंग-उम्मीद की दुनिया बनायेंगे ? जुबां पे सच और दिल में इंडिया का हौसला रखने वाले पत्रकार क्या भारत पर तानेंगें? कोई करोड़ो दर्शकों से पूछे कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए न्यूज चैनल(ल्स)कैसे दिन-रात लड़तें हैं” का दावा करने वाले लोगों के लिए क्या यह लड़ने का मौका है ? क्या कोई अपनी मिशन की पवित्रता को बचाने के लिए लड़ेगा या समाज और सरोकार की बातें करने वाले सिर्फ और सिर्फ बाजार के हाथों कठपुतली बने रहेंगें ? 

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