मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

व्यावसायिक हिन्दी सिनेमा को नाजी यंत्रणा कैम्प से गुजारता एक फिल्म :हैदर



यह फिल्म उन दुखी माओं के नाम रात में जिनके बच्चे बिलखते है,उन हसीनाओं के नाम मिन्नत ओ ज़ारियों से बेहलते नहीं,उन ब्याहताओं के नाम जिनकी आँखों के गुल बेकार खिल खिल के मुरझा गए है.विशाल भरद्वाज की "हैदर" मात्र एक फिल्म नहीं है,व्यावसायिक हिन्दी सिनेमा को नाजी यंत्रणा कैम्प से गुजरने जैसा है.मैं राष्ट्रविरोधी नहीं हूं,परन्तु मैं उन पर टिप्पणी करना चाहता हूं जो अमानवीय है. हैदर को इसी नजरिये से देखने की जरुरत है.यह एक ऐसे सच की कहानी है.जंहा सारा काश्मीर जेल बना दिया है उन बदनीयत बाजों द्वारा जिनके पंखों में मौत छिपी थी.एक ऐसी जगह जंहा ऊपर खुदा और नीचे फ़ौज है,जिस फ़ौज ने वादी में बारूद छिड़क दिया.और कश्मीरियों के साथ कर दिया (CHUTZAP)चुत्स्पा. हैदर एक आवाज है उन बिलखते हुए कश्मीरियों के लिए जो सन्नाटे से सुर मिलकर उनके जख्मों पर मरहम लगाने का काम तो नहीं,बल्कि उन्हें दिखाने का काम कर रही है.एक ऐसी यंत्रणा जिसने उनके दोनों जहां और सारी दास्तान निगल गई.एक ऐसी जगह जंहा कभी किसी चूजे को चील उठा के ले जाती है तो कंही किसी बुलबुल को बाज जिन्दा नोच लेते हैं. मानो यह उस हिन्दुस्तान का हिस्सा था ही नहीं जंहा न दिन पर पहरें हैं न रात पर ताले.छल,कपट,घृणा,प्रपंच ने न जाने कितने नस्ल हज्म कर गया.इसने झेलम को रंग को लाल और स्वाद को खारा कर दिया.जब सत्ता ही अमानवीय हो जाए तो लोग किससे पूछे कितनी देर से दर्द को सहते जाना है,अंधी रात का हाथ पकड़ कर कब तक चलते जाना है.उनको यह एहसास हो रहा था 'हम थे या हम थे ही नहीं'झेलम का सर्द पानी इनके जख्मों पर मरहम नहीं लगा पाई,जो पहले ही खारा हो चूका था.बेशर्म-गुस्ताख आस्फा ने 'बूँद-बूँद बरसूँ मैं पानी-पानी खेलु-खेलु और बह जाऊँ' जैसे छोटी-छोटी कामनायों पर भी घना अंधेरा फैला दिया.इसने आधी वेवा (हाफ विडोज) और गुमशुदा (डिसअपियार्ड) लोगों की एक लम्बी दास्तान बना दी थी,लोग अपने घरों में जाने के लिए किसी के आई कार्ड चेक करने का इंतजार करने जैसे अवसाद में रहने लगे.लाशों के ठेर से जिन्दा निकलने की खुशियों में पागल होने लगें.इनको मरकर ही पता चलता कि जिन्दा थे तब जिए ही नहीं.मुजरिम अब भी शर्मिन्दा न था वह झंडा का कोई भी रंग चुनना चाहता था.कुछ लोग अब भी उस दिन दिन को देखने के लिए जिन्दा थे जिसका वादा था,पर वादा के जगह मिली झूठ,छल,प्रपंच,इर्ष्या.इसने हर जुल्म को मात दे डाली.यह पता नहीं चल रहा था की किसका झूठ,झूठ है किसके सच में सच नहीं.शक पर है यकीं तो यकीं पर शक हो रहा था.यह हर सवाल का जबाव भी सवाल था.भारत-पाकिस्तान दोनों ने इस खेल इनके वजूद हो स्वीकार ही नहीं किया.
यह फिल्म थोथा और थोपा गया राष्ट्रवाद को सिरे से ख़ारिज करती है.यह सत्ता-सेना-पुलिस-प्रशासन के प्रति एक सकारात्मक मानवीय हस्तक्षेप है.यह काश्मीर में कश्मीरियों के वजूद को टलोलती है.यह वही कश्मीरियत है "जो दरिया भी मैं दरख़्त भी मैं,झेलम भी मैं चिनार भी मैं,शिया भी मैं सुन्नी भी मैं,मैं हूं पंडित,मैं था मैं हूं मैं ही रहूंगा" का नाद करता है.जिसमें 3 लाख विस्थापित के वजूद को स्वीकार करता है.लाल चौक पर खड़ा होकर हैदर जो सवाल पूछता है वो अब भी भी सवाल ही है.हिन्दुस्तान में आजादी लाठी वाला लाया था ने गांधी की प्रासंगिकता को बचाए रखा उस दौर में जब कुछ फासीवादी लोग उनको ख़ारिज करने पर आमादा हैं.बंदूक सिर्फ इंतकाम लेना जानती है,जब तक हम अपने इंतकाम से आजाद नहीं हो जातें तब तक कोई आजादी आजाद नहीं कर सकती.इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता है.फिल्म में हैदर अपने इंतकाम से आजाद हो जाता है शायद यही सही वक़्त है आजादी का.अब और कब तक वक़्त का खून होता रहेगा.कब तक आधी वेवा अपने शौहर के मरने की खबर या डेड बॉडी के इंतजार में मरती रहेगी?रूह के बसेरे ने अंधेरा ही अंधेरा कर दिया है.फ़रिश्ते की लोरी सुनाने के लिए चले भी आओ की गुलशन का कारोबार चले.
हेमलेट का जितना भारतीय परिवेश और संस्कारों(संस्कृति) में एडोप्टेशन हो सकता था किया है.हैदर की अपनी खामियां हो सकती है/होगी.यह फिल्म नहीं एक कल्ट है जो शौर्य,शाहिद का विकास है.एक शानदार बेबाक और निर्भीक फिल्म के लिए शुक्रिया!!!!

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