बुधवार, 18 जून 2014

बेशर्म मीडिया के संपादकों सुनो

बेशर्म मीडिया के संपादकों सुनो   

                 

 

सोलह मई को भारत के इतिहास में दो जीत दर्ज हैं,पहली राजग व् नरेंद्र दामोदर भाई मोदी की जीत और दूसरी जीत हिंदुस्तान के लगभग उन अठारह करोड़ मुसलमानों की हैं.जो भारतीय मुख्यधारा की मीडिया में आतंकवादी के मिथक,प्रतीकों और “सफ़ेद टोपी”के उपनामों से नवाजे गयें है.भारत की तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया हमेशा से मुसलमानों को आतंकवाद के साथ जोड़ कर देखता रहा है(कुछ अखबार को छोड़कर). एक हाथ में कुरान और एक हाथ में लैपटॉप के जुमलेबाजी से आगे निकलना है तो इस मुख्यधारा की मीडिया को अपने चश्में का रंग बदलना होगा,उसको हरे रंग की स्याही से लिखने की सोच से निकलना होगा.

   सोलह मई 2014 को 2002 के अक्षरधाम आतंकी हमले के सभी छह आरोपियों को  सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया. आदेश में शीर्ष अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा-"अभियोजन पक्ष की कहानी हर मोड़ पर कमजोर है और गृह मंत्री ने नॉन अल्पिकेशन ऑफ़ माइंड (Non Application Of Mind) का प्रयोग किया.सनद रहे उस समय के गृहमंत्री और कोई नहीं बल्कि देश का मजदूर नंबर एक बनने की कामना लिए  अशोक हाल में रोने वाले नरेंद्र दामोदर भाई मोदी हैं." जब आतंकी हमले के घंटे दो घंटे के अंदर पुलिस मनचाहे लोगों को शिकार बनाकर उठा ले जाती है तब तो मीडिया आरोपियों को आतंकी करार देते हुए और उनके शहर को आतंक का अड्डा बताते हुए पहले पन्ने पर काजग काले(हरे रंग से)किये रहते हैं  या स्पेशल रिपोर्ट में धागे से तम्बू बनाने/तानने की जुगत में दिन रात लगे होतें हैं.उनके जन्मस्थान में जाकर उनके घरवालों के मुंह में लगभग माइक घुसेड़ कर पूछते हैं की कैसा लगता है ?लेकिन बरसों बाद जब वही आरोपी बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं तो अव्वल तो वह इस ख़बर को लेता ही नहीं और अगर लेता भी है तो अंदर के पन्नों में एक कॉलम में या टिकर पर किसी औपचारिता की तरह.

सोलह मई को किसी मीडिया ने उस समय के गृहमंत्री(गुजरात) से सवाल क्यों नहीं पूछा की उन बेगुनाह भारतीयों का क्या होगा?कौन देगा इसके जवाब? भारतीय क्रिकेट टीम द्वारा मैच के हार एक पर “गुनाहगार कौन” नाम से स्पेशल कार्यक्रम ‘तानते’ हैं,अब मीडिया के इस चारण काल में किसी भी मीडिया चैनल या हाउस के अन्दर इतनी मिशनरी ग्लूकोज बची है जो इन छ लोगों के गुनाह को निर्धारित और जबावदेही तय करने वालों के गुनाहों का हिसाब लिया जा सके. अब क्यों नहीं किसी में यह हिम्मत बची की बारह साल काल कोठरी में गुजरे इस लोगों के लिए गुनाहगार तय करे.क्या इनके द्वारा काल कोठरी में गुजरे गए बारह साल की कीमत एक क्रिकेट मैच से भी काम है? जो चैनल भुत-प्रेतों का टी.आर.पी तय करता है,बिना ड्राइवर की कार चलवा सकता है,स्वर्ग की सीढी बना सकता है, क्या वह इन भारतीयों के गुनाहगारों से सवाल भी नहीं पूछ सकता? अगर नहीं तो तुम वाचडॉग नहीं बन सकते सिर्फ डॉग बन सकते हो. जो राजसत्ता और नई पूंजी के सामने अपनी दूम हिलाते रहने को विवश हो. रीढविहीन मीडिया आज सत्ता के चरण-चारण वंदना कर रही है और मजदूर के आंसू से ग़मगीन होती दिख/बिक  रही है. परन्तु मोहमद सलीम,अब्दुल कैयुम,सुलेमान मंसूरी की आंसू मीडिया को नहीं दिख रहा है.नहीं दिखा उस शहवान का दर्द जिसके अब्बा पिछले सालों से जेल में हैं.सलीम अपनी बेटी से दस साल बाद मिल सका क्योकिं उसके जेल जाने के बाद यह पैदा हुई थी,उस बच्ची के बचपन को अब्बू की जगह को कौन भरेगा?इस मीडिया को हरेक मुसलाम आतंकवादी ही दिखता है.

एक दूसरा पहलू है की अगर यही कर्नल पुरोहित,साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को न्यायलय बाईज्जत बरी करती तो क्या इस मीडिया का यही रवैया रहता ?इस घटना को मीडिया बस चलता है की शैली में देखता या कोई और रंग लगाता.खैर यह तो बाद में पता चलेगा.क्या यह रवैया इसलिए है क्योकिं इस मीडिया में मुस्लिमों की भागीदारी कम है या कोई और कारक है ?

                                      परन्तु मीडिया ने एक खुबसूरत मौका बेकार कर दिया. मीडिया को यह जान लेना चाहिए की मुस्लिमों की सकारात्मक खबर टिकर और फीलर से नहीं भरी जा सकती है.अगर एक हाथ में कुरान और दुसरे हाथ में लैपटोप के जुमलेबाजी को सार्थक करना है तो तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया को अपने  चश्मे का रंग बदलना होगा .